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गुणों का भंडार लौंग' 'लौंग' मर्टेसी प्रजाति के यूजीनिया कैरियोफाइलेटा नामक मध्यम कद वाले सदाबाहर वृक्ष के सूखे हुए फूल की कली है। लौंग का अंग्रेजी पर्यायवाची क्लोव है, जो लेटिन शब्द क्लेविको से निकला है। इस शब्द से कील या कांटे का बोध होता है, जो लौंग की आकृति से मिलते हैं।
छोटा-सा दिखाई देने वाली लौंग अन्य मसालों की तुलना में कहीं अधिक गुणकारी है। इसकी सुगंध भी इतनी भीनी-भीनी होती है कि दूर से ही अलग महसूस की जा सकती है। इसके रत्ती भर उपयोग से खाना जायकेदार बनाया जा सकता है। यहाँ तक कि टूथपेस्ट, साबुन, मंजन, इत्र और तेल को सुगंधित करने के लिये इसका उपयोग किया जाता है। दाँत के दर्द में लौंग का तेल रामबाण साबित होता है। लौंग को चबाने से सांस की दुर्गंध दूर होती है और दाँतों में छिपे हुए कीटाणु भी मर जाते हैं। लौंग का प्रयोग पाचन-शक्ति को ठीक रखने के अलावा गले की खराश को भी दूर करता है।
चीन में ईसा से तीन शताब्दी पूर्व से ही लौंग प्रचलन में आ गया था। यूरोप के अन्य देशों में इसकी जानकारी 16वीं शताब्दी में उस समय हुई जब पुर्तगालियों ने इसे मलैका द्वीप में खोज निकाला। वर्षों तक इस पर पुर्तगालियों और डचों का एकाधिकार रहा।
लौंग अब सभी उष्णकटिबंधीय देशों में पैदा होता है। जंजीबार में 90 प्रतिशत तथा सुमात्रा, जमैका, ब्राजील और वेस्टइंडीज में भी इसकी काफी पैदावार होती है। ____लौंग के बीज से पौधा लगाया जाता है और जब पौधे तीन-चार फुट के हो जाते हैं, तो उन्हें 20 से 30 फुट की दूरी पर लगा दिया जाता है। लौंग के पेड़ पर छठे वर्ष फूल लगने शुरू हो जाते हैं और 12 से 25 वर्ष तक अच्छी फसल होती है। एक बारे में एक पेड़ से तकरीबन तीन से चार किलोग्राम लौंग मिलती है।
लौंग के फूल गुच्छों में सुर्ख लाल रंग के खिलते हैं। जैसे ही इन कलियों का रंग हल्का गुलाबी होता है और वे खिलती हैं उन्हें चुन-चुनकर हाथ से तोड़ लिया जाता है। कभी-कभी पेड़ के नीचे कपड़ा बिछाकर शाखा को पीटकर कलियों को गिरा लिया जाता है। इसे धूप में रखकर सुखाया जाता है, लेकिन खराब मौसम होने पर इसे आग में (सेककर) भी सुखाते हैं। कभी-कभी कलियों को सुखाने से पहले गर्म पानी में धो लेते हैं। सूखने के बाद 40 प्रतिशत लौंग बचता है।
असली लौंग बेहद सुगंधित होता है, उसके ऊपरी सिरे को दबाने पर तेल निकलने लगता है, जबकि सस्ते किस्म का लौंग तेलरहित बिकता है। तेलयुक्त लौंग को ही
औषधीय गुणों वाला माना जाता है, जिसका उपयोग वैद्य और हकीम बड़े पैमाने पर करते हैं।
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प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर'98