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घटनाक्रम में एक जैन अध्येता को वाराणसी से भागकर नदिया (नवद्वीप - बंगाल) में जाकर छद्मरूप में अपने शेष अध्ययन को पूर्ण करना पड़ा था ।
उक्त बिन्दुओं पर विचार करें, तो हम पाते हैं कि हमारे पूर्वज ने किस कीमत पर समाज में शिक्षण-व्यवस्था चालू रखी और ज्ञानज्योति को अखण्ड प्रज्वलित रखा। आज यह सरकार की समभावीनीति एवं स्वनामधन्य डॉ० मण्डन मिश्र जी एवं प्रो० वाचस्पति उपाध्याय जी जैसे उदारचेता महामनीषियों का ही महान् योगदान है; जिसके फलस्वरूप आज जैनों को संस्कृत-प्राकृत आदि भाषाओं एवं दर्शन - न्याय आदि ज्ञानविधाओं का निष्पक्षभाव से शिक्षण संस्कृत महाविद्यालयों एवं विश्वविद्यालयों में दिया जाता है । यही नहीं, प्राकृतभाषा एवं जैनदर्शन के जितने भी विभाग, अध्ययनकेन्द्र आज देशभर में चल रहे हैं, नये खुल रहे हैं - वे भी इन्हीं के प्रत्यक्ष या परोक्ष योगदान से ही गतिशील हैं ।
प्राचीन व्यवस्था एवं परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में हम पाते हैं कि इन दोनों महामनीषियों ने जैनसमाज में भारतीय परंपरित शिक्षा को निष्पक्षभाव से प्रदान करने के लिए जो योगदान किया है, वह निश्चय ही स्वर्णाक्षरों में लिखे जाने योग्य है ।
भगवान् की भविष्यवाणी
'णग्गो मच्छादि आहारा ।'
- ( आचार्य नेमिचंद, त्रिलोकसार, 861, पृष्ठ 663) अर्थ :- कलियुग के अन्त में मनुष्य मछली आदि का भक्षण करने वाले और नग्न ही
होंगे।
राम एवं जनक शुद्ध शाकाहारी थे
'न मांसं राघवो भुंक्ते ।' - ( वा० रामायण, 36/41 ) अर्थ:-श्रीराम मांस नहीं खाते।
'निवृत्त-मांसस्तु तत्रभवान् जनक: ।' – ( भवभूति, 4/1 ) अर्थ ः– आदरणीय जनक महाराज मांस-परित्यागी है ।
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मुनिजन संयमी एवं पवित्र जीवन वाले होते हैं
मधु मांसं च ये नित्यं वर्जयन्तीह धार्मिकाः । जन्मप्रभृति मद्यं च, सर्वे ते मुनयः स्मृताः ।।'
- ( महाभारत, अनुशासनपर्व, 70 ) अर्थ — जो धार्मिक सज्जन लोग कभी भी शहद, माँस एवं शराब (नशाकारक वस्तुओं) का सेवन नहीं करते; उनका आजीवन त्याग करते हैं; वे ही 'मुनि' माने गये हैं ।
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प्राकृतविद्या + अक्तूबर-दिसम्बर 198
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