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जैनदर्शन के प्रतीक पुरावशेष
- डॉ० कस्तूरचन्द्र 'सुमन'
भारतीय संस्कृति के सम्पूर्ण क्षेत्रों में जिनधर्मानुयायियों का समर्पित अनन्य योगदान रहा है। चाहे वह विविध विषयों के साहित्य-निर्माण का क्षेत्र हो, या चौंसठ कलाओं का; सभी में उन्होंने अपने योगदान से राष्ट्र का सांस्कृतिक गौरव बढ़ाया है। इसी क्रम में शिल्पकला' के क्षेत्र में विशिष्ट एवं सोदेशिक प्रयोगों से भरपूर कतिपय पुरावशेषों का वर्गीकृत परिचय एवं समीक्षण यहाँ प्रस्तुत किया गया है। इस विषय में जो दृष्टिकोण लेखक ने अपनाया है, वह अन्यत्र भी अनुकरणीय है ।
-सम्पादक
जैनदर्शन साहित्य का ही विषय नहीं रहा है । कलाकारों ने उसे 'कला' का विषय भी बनाया है। 'शिल्पकला' के माध्यम से जैनदर्शन के सिद्धान्तों को समझने / समझाने का प्रयत्न किया गया है। राजस्थान ऐसी कला में अग्रणी रहा प्रतीत होता है । श्रीमहावीरजी स्थित 'दिल्लीवाली धर्मशाला' के पिछले प्रांगण में विद्यमान ऐसे कलावशेषों का परिचय निम्नप्रकार है:
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1. कर्म-प्रकृति स्तम्भ
जैन-ग्रंथों में ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय —ये आठ कर्म और इन आठ कर्मों की क्रमश: 5, 9, 2, 28, 4, 93, 2 और 5. इसप्रकार कुल 148 उत्तर - प्रकृतियाँ कही गयी हैं ।
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प्रस्तुत संग्रहालय में पश्चिमाभिमुख 40 इंच ऊँचा और 101⁄2 इंच चौड़ा एक ऐसा चौकोर प्रस्तर-फलक है, जिसे सीमेंट से छोटी दीवार में लगा दिया है। इस फलक को तीन भागों में दर्शाया गया है। मध्यभाग में 7 इंच अवगाहना में निर्मित तीन प्रतिमायें खड्गासनस्थ विराजमान हैं। इन प्रतिमाओं के ऊपरी भाग में 5 इंच अवगाहनावाली तीन प्रतिमायें पद्मासनस्थ भी अंकित हैं । मध्यवर्ती प्रतिमाओं की दायीं बायीं ओर भी 3-3 प्रतिमायें पद्मासनस्थ तथा उनके पास 'पद्मासन मुद्रा' में अंकित 12-12 प्रतिमायें विद्यमान हैं। इसप्रकार एक ओर कुल 36 प्रतिमायें अंकित हैं। इस अंश की उत्तराभिमुखी 12 प्रतिमाओं से ज्ञात होता है कि ऐसी रचना स्तम्भ के चारों ओर रही है । स्तम्भ का ऊपरी अंश नहीं है। अनुमानत: उसमें चारों दिशाओं में एक - एक अर्हन्त-प्रतिमा विराजमान रही है।
इसप्रकार एक ओर 37 तथा चारों ओर 148 प्रतिमायें निर्मित रही हैं। प्रतिमाओं की इस संख्या से हमारा ध्यान जैनदर्शन के कर्म - सिद्धान्त की ओर आकर्षित होता है। संभवत: कलाकार का मन्तव्य कला के माध्यम से जन-जन को जैनदर्शन के प्रमुख सिद्धान्तों से 1. आचार्य जिनसेन, हरिवंशपुराण, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, पर्व 58, श्लोक 233 से 282 ।
प्राकृतविद्या + अक्तूबर-दिसम्बर 98
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