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(प्रूफरीडर) स्तर के सतही विद्वान् जब आचार्यों के ग्रंथों का सम्पादन करने लगते हैं, तब ऐसे ही संशोधनों से ग्रंथों के मूलपाठ बदले जाते हैं तथा मूल अभिप्राय धीरे-धीरे लुप्त होने लगता है।
आज की तथाकथित शास्त्री-परिषदों एवं विद्वत्परिषदों के पण्डितों को हमारे आचार्यों की 'शौरसेनी प्राकृतभाषा' का क-ख-ग भी नहीं आता है तथा कई तो इसका नाम भी नहीं जानते हैं; तब इनसे प्रामाणिक संपादन हो पाना एवं मूलपाठों की सुरक्षा हो सकना कैसे संभव है? इनके अज्ञान के कारण विकृत हुये पाठों को यदि कोई विद्वान् मूलप्रतियों एवं प्रमाणों के आधार पर पुन: मूलानुगामी बनाये, तो ये 'शास्त्रों में फेरबदल' का नारा बुलंद करके उसे अपमानित करने में नहीं चूकते हैं। जिन्हें स्वयं को तो कुछ आता नहीं, और दूसरों का अपवाद करने में सदैव अगुआ (अग्रणी) रहनेवाले ऐसे तथाकथित विद्वानों की जमात से कैसे निपटा जाये? —यह समाज के लिए विचारणीय विषय है।
साथ ही यह भी विचारणीय है कि जब कुरान को मुसलमान मूलभाषा उर्दू या अरबी' में ही पढ़ते-सीखते बोलते हैं तथा उसके लिए प्रत्येक मुसलमान को वह भाषा अनिवार्यत: सीखनी होती है; हिंदू धर्मग्रंथ 'संस्कृत' एवं वेद 'छान्दस्' में ही पढ़े-सीखे जाते हैं, उनको पढ़ने के लिए यह भाषा सीखना अनिवार्य होता है। इसीप्रकार अन्य विविध धर्मों एवं सम्प्रदायों में अपनी-अपनी भाषा के ज्ञान की अनिवार्यता है। श्वेताम्बर जैन साधु, साध्वी, समणियाँ आदि भी अनिवार्यत: 'अर्धमागधी' प्राकृत सीखते हैं। तब दिगम्बर जैन सम्प्रदाय की मूलभाषा 'शौरसेनी प्राकृत' इस वर्ग के साधुओं व विद्वानों को अनिवार्यत: क्यों नहीं सिखायी जाती? क्या यह हमारी अपने मूलग्रंथों को उपेक्षित करने की कुप्रवृत्ति नहीं है। मेरा तो समाज से निवेदन है कि जब तक कोई व्यक्ति इसे विधिवत् सीख न ले, तब तक उसे साधु-दीक्षा ही नहीं दी जानी चाहिये तथा पण्डित को शास्त्रसभा की गद्दी पर बैठने या ग्रंथ-सम्पादन का अधिकार नहीं होना चाहिये। अन्यथा ये हमारे आगमग्रंथों का मूलस्वरूप विकृत किये बिना नहीं रहेंगे। हमारी भाषा व मूल प्रतिपाद्य को जैनेतरों व हमसे विद्वेष करनेवालों से इतना खतरा नहीं है, जितना कि इस भाषा से अनभिज्ञ हमारे ही साधुओं व पण्डितों से है। क्योंकि विद्वेषी तो हमारी भाषा के बारे में अधिक से अधिक 'अपलाप' ही करेंगे या उपेक्षा करेंगे; जिससे इसके मूलपाठ व अभिप्राय विकृत नहीं होंगे। किंतु हमारी शौरसेनी-प्राकृत-विषयक अज्ञानता से ही हमारे ग्रंथों के मूलपाठ आज तक विकृत हुये हैं और यदि हम समय रहते नहीं सुधरे, तो आगे भी यह विकृति की परम्परा चलती रहेगी। __विचार करें कि क्या हम अपने आचार्यों की इस अमूल्य धरोहर के प्रति वस्तुत: गम्भीर हैं, या मात्र उसे ढोक (प्रणाम) देकर अपने कर्तव्य की इतिश्री' कर लेना चाहते हैं? ध्यान रहे, यदि हम समय रहते नहीं सुधरे/सावधान हुये; तो आगे आने वाली पीढ़ी
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प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर'98