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णमो महुरसवीणं ।। 43।। अर्थ:—'मधुम्रावी' (बस्वाद भोजन भी जिनके हाथों में मधुर हो जाता है) ऋद्धि के धारक जिनेन्द्रों को नमस्कार है।
णमो अमिय-सवीणं ।। 44।। अर्थ:-'अमृतस्रावी' (जिनके हाथों में कोई भी भोज्यपदार्थ अमृततुल्य हो जाता है) ऋद्धि के धारक जिनेन्द्रों को नमस्कार है।
णमो अक्खीण-महाणसाणं ।। 45।। अर्थ:-'अक्षीणमहानस' (जिनके आहार के बाद उस चौके में चक्रवर्ती की सेना भी भोजन करे, तो भी भोजन कम न पड़े) ऋद्धि के धारक जिनेन्द्रों के लिए नमस्कार है।
णमो वड्ढमाणाणं ।। 46।। अर्थ:-'वर्द्धमान ऋद्धि' के धारक जिनेन्द्रों को नमस्कार है।
णमो सव्वसिद्धायदणाणं ।। 47।। अर्थ:-सम्पूर्ण सिद्धायतनों/सिद्धक्षेत्रों को नमस्कार है।
णमो भगवदो महदि-महावीर-वड्ढमाणाणं बुद्धरिसीणं ।। 48।। अर्थ:-भगवान् श्रेष्ठ महावीर वर्द्धमान बुद्धऋषि (केवलज्ञानी) को नमस्कार है। —यह 'गणधरवलय मंगल दंडक' है। इसके बारे में कहा जाता है
“नित्यं यो गणभृन्मन्त्रं, विशुद्ध: सन् जपत्यमुम्, आम्रवस्तस्य पुण्यानां, निर्जरा पापकर्मणाम् । नश्यादुपद्रव: कश्चिद् व्याधि-भूत-विषादिभः,
सदसद्-वीक्षणे स्वप्ने समाधिश्च भवेन्मृतौ ।।" अर्थ:-जो भव्यात्मा (श्रमण या श्रावक) प्रतिदिन प्रात:काल शुद्ध उच्चारण के साथ 'गणधरवलयदण्डक' के इन मंत्रों का एकाग्रचित्त होकर जप करता है, उसके पुण्य का आस्रव होता है एवं पापकर्मों की निर्जरा होती है। उस व्यक्ति को रोग, भूतबाधा, विषबाधा इत्यादि कोई पीड़ा नहीं होती है। अपने शुभ और अशुभ को वह स्वप्न में देख सकता है। तथा उसे मरण-समय में समाधि (सल्लेखना या मृत्युमहोत्सव) की प्राप्ति होती है।
उपर्युक्त दण्डक का पूज्य आचार्य शांतिसागर जी मुनिराज (प्रथम) नित्यप्रति जप करते थे। उन्हीं से परम्परा में यह जप करना सीखा है। ___ यह दण्डक आचार्य भूतबलि-प्रणीत 'महाबन्ध' के मंगलाचरण-स्वरूप भी आया है। किंतु वहाँ प्रतिलिपिकार की असावधानी से चार मंत्र छूट गये हैं; कुछ पाठ भी थोड़े-बहुत परिमाण में अशुद्ध छपे हैं।' एकाध स्थल पर क्रम-व्यव्यय (आगे-पीछे होना) भी पाया जाता है। अत: यहाँ व्यापक अनुशीलन एवं पूर्वापर समीक्षण के बाद जो परिशुद्ध पाठ मिले हैं, उन्हें ही पूर्णरूप में दिया गया है। इसका अभ्यास प्रत्येक धर्मानुरागी साधक व्यक्ति को अवश्य करना चाहिये।
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प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर'98