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नाहिं पातरे कपडे गालो, गाढ़े वस्त्र छाणि अघ टालो । रेजा दृढ़ आंगुल छत्तीसा, लंबा अर चौड़ा चौबीसा।। ताको दो पुड़ता करि छानो, यही नातणा की विधि जानो। जल छाणत इक बूंद हु धरती, मति डारहु भाषे महावरती।। एक बूंद में अगणित प्राणी, इह आज्ञा गावै जिनवाणी। गलना चिउंटी धरि मति दाबो, जीवदया को जतन धराबो।। छाणे पाणी बहुते भाई, जल गलणा धाबे चित लाई। जीवाणी को जतन करो तुम, सावधान है विनवै क्या हम ।। राखहु जल की किरिया शुद्धा, तब श्रावकव्रत लहौ प्रबुद्धा।" इससे स्पष्ट है कि पानी छानने की शुद्ध क्रिया का पालन किए बिना कोई श्रावक नहीं हो सकता। वास्तुव में पानी छानने की विधि क्या है? वही क्रिया शुद्ध हो सकती है जिसमें जीवदया का पालन हो। पानी को गिराने में, ढोलने में, बहाने में अनेक जीवों का घात होता है। उन जीवों की रक्षा करना ही यथार्थ में जल-गालन है। इसलिये पानी औधाकर गलना-प्रमाण छानें । पानी गलने (छन्ने) में औंधा करने पर तत्काल छनता नहीं है; धीरेधीरे पानी अनुक्रम से छनता है। इसलिये गलने का प्रमाण यह है कि जिस बर्तन में छानना हो, उससे तिगुना लम्बा-चौड़ा दुहरा करने पर समचौकोर हो। पानी छानते समय जल की एक बूंद भी बर्तन से बाहर नहीं गिरनी चाहिए। इसीप्रकार अनछने पानी की एक बूंद भी छने पानी में नहीं गिरना चाहिए। इसलिये पं० आशाधरजी कहते हैं कि “छोटे छेदवाले या पुराने कपड़े से पानी छानना योग्य नहीं है।" - (सागार धर्मामृत, 3/16)
यह भलीभाँति ध्यान में रखने योग्य है कि जैन-परम्परा/आम्नाय में जल को एकेन्द्रिय जीवकाय माना गया है। ओस, बर्फ, धुयें के समान पाला, स्थूलबिन्दुरूप जल, सूक्ष्मबिन्दुरूप जल, चन्द्रकान्त मणि से उत्पन्न शुद्ध जल, झरने का जल, मेघ का जल, घनोदधिवात जल -ये सब जलकायिक जीव हैं। जल का वर्ण धवल माना गया है। जब तक जल को प्रासुक नहीं किया जाता है, तब तक उसमें सूक्ष्म जीवों का संचार बना रहता है। इसलिये छना हुआ जल अड़तालीस मिनट के भीतर काम में ले लेना चाहिए। ___ जल-गालन में सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य जीवानी' का है। पं० दौलतरामजी के शब्दों में- ' "ऊपर सं डारौ मति भाई, दया धर्म धारी अधिकारी।
भंवरकली को डोल मॅगावो, ऊपर-नीचे डोर लगावो।। द्वै गुण डोल जतन करि वीरा, जीवाणी पधरावो धीरा। छाण्या जल को इह निरधारा, थावरकाय कहें गणधारा।।
-(जैन क्रियाकोष, 74-75) अर्थ:-पानी छानने के पहले अनछने पानी के बर्तन में अनछने पानी के हाथ और
प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर'98
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