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फिर बर्तन धो लीजिए। छने पानी से बर्तन को तीन बार धोना चाहिए। उसके पश्चात् बर्तन के मुख पर गलना या छन्ना लगाइये। बायें हाथ में छना पानी प्राप्त करने का बर्तन लीजिए और दाहिने हाथ से पानी की भरी हुई बाल्टी या डोल बर्तन के ऊपर उँडेल दीजिए। इसप्रकार क्रम-क्रम से थोड़ा-थोड़ा पानी छानिए। इसके बाद गलना या छन्ना खाली बाल्टी में उलट दीजिए और उसे छने पानी से धोकर जीवानी' कीजिए। ___'जीवानी' करने के लिए बाल्टी या लोटा में 5-7 अंगुल की लकड़ी बाँधकर भीतर आड़ी लगा देने से वह बर्तन कुआँ में सीधा चला जाता है। उसकी बर्तन की डोरी में उल्टा फंदा बाँध कर कुएँ के पैंदे तक बाल्टी या लोटा पहुँचाना चाहिए और जब वह पानी तक पहुँच जाए, तभी ऊपर से डोरी हिला देने से उस बर्तन से लकड़ी निकल जाती है।
और वह औंधा हो जाता है। उसी समय बर्तन को ऊपर खींच लेना चाहिए—इस विधि को जीवानी करना' कहा जाता है। आज के युग में बाल्टी के सबसे नीचे पिछली तरफ एक कड़ा लगवा लेना चाहिए। उस कड़े की रस्सी को इशारे से खींचते ही बाल्टी औंधी हो जायगी और पानी छानने का 'जीवानी' किया हुआ पानी बिना चोट पहुँचाए आराम से कुएँ में वापस पहुँच जाएगा - इसे ही जीवानी करना' कहते हैं। 'जीवानी' किया हुआ पानी ही वास्तव में 'छना पानी' कहलाता है। यही जल-गालन की विधि है।
ब्र० पं० राजमलजी के शब्दों में— “या भाँति जीवाणी पहोंचावै, तिनिधैं छाण्या पानी पीया कहिये। अर पूर्ववत जीवाण्या न पहोचे, ता. अणछाण्या पानी पीया कहिये वा सूद्र सादृश्य कहिये। जिनधर्मविर्षे तौ दया ही का नाम क्रिया है, दया बिना धर्म नाम पावै नाहीं। जाके घट दया है, तेई पुरुष भव-समुद्र कूँ तिरै हैं। -ऐसा पानी की शुद्धता का स्वरूप जानना।"
बिन्धि सब के पल्ले लाल, लाल बिना कोई नहीं।
याते भयो कंगाल, गांठ खोल देखी नहीं।। यह आत्मरूपी लाल (मणि) सब के अंचल में बन्धी हुई है। इससे वंचित कोई नहीं है फिर भी लोग यदि कंगाल (निर्धन) दिखायी देते हैं, तो उसका कारण यही है कि उन्होंने गांठ खोलकर अपने 'लाल' को देखने का कष्ट कभी उठाया नहीं। आत्मदर्शन मनुष्य की सबसे बड़ी; पूँजी है; किन्तु उसमें साँसारिकता की गाँठ पड़ी हुई है। उस 'गाँठ' को खोलकर 'णिगण्ठ' हुये बिना इस निर्धनता से छुटकारा नहीं मिल सकता।
भतार्थ ॐ हीं अहं भूतार्थभावना-सिद्धाय नमः। -(सिद्धचक्र विधान, 814, पृ0 189) ॐ हीं भूर्तार्थभक्तचेतनाय नमः। -(नयचक्र, 908)
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प्राकृतविद्या+अक्तूबर-दिसम्बर'98