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वचनगत एवं कायगत संसर्ग' बताया है। ___ वस्तुत: 'संसर्ग' का प्राकृतरूपान्तरण संसग्ग' होता है; किन्तु उस सामान्य 'संसर्ग' शब्द का अभिप्राय 'संगम, मेल-मिलाप, सह अस्तित्व या घनिष्ठ सम्बन्ध, (द्रष्टव्य, आप्टेकृत 'संस्कृत-हिन्दी कोश', पृ० 1050) ही प्राय: होता है। इसका 'कुसंगति' या 'खोटा सम्पर्क' रूप अर्थ को विशेषत: व्यंजित करने के लिए ही यहाँ 'संसग्गि' शब्द का सोदेशिक प्रयोग आचार्य कुन्दकुन्ददेव ने किया था। क्योंकि वे शुभाशुभ भावों को 'कुशील' की संज्ञा दे रहे हैं, अत: कुत्सित-शीलवालों की संगति तो 'सत्संगति' कदापि नहीं हो सकती है। इसी तथ्य को विशेषत: स्पष्ट करने के लिए यहाँ 'संसग्गि' शब्द का सोद्देशिक प्रयोग किया गया है। क्योंकि इसका अर्थ प्राकृतभाषा में 'कुत्सित' अर्थ में ही लिया गया है। यह कोई स्वप्रयुक्त उपालम्भ नहीं है, अपितु अनेकत्र इसके प्रमाण प्राप्त होते हैं। यथा
1. 'अभिधान राजेन्द्र कोश' (भाग 7, पृष्ठ 244) में 'संसग्गि' के बारे में लिखा है कि यह 'संसर्गिक' शब्द का प्राकृतरूप है, तथा यह पुल्लिंग है। इसका अभिप्राय निम्नानुसार बताया गया है—“कुशीलादि-संसर्गि निषिद्धा। मैथुनसम्पर्क-स्त्रीपुसंसर्गविशेषरूपत्वात् संसर्गजत्वात् संसर्गीत्युच्यते।" यहीं पर स्पष्ट किया है कि 'संसर्ग' शब्द को ही विशेष अर्थ में प्राकृतभाषा में 'संसग्गि' कहते हैं—“प्राकृतत्वात् संसर्गः” ।
2. पाइअ-सद्द-महण्णवो' (पृष्ठ 854) पर इसका अर्थ 'संबंध, संगति या सोहबत' दिया गया है तथा अन्य किसी प्राकृत-ग्रन्थ का उद्धरण भी दिया गया है, जिसमें 'संसग्गिं' पद का ही प्रयोग किया गया है। ___3. 'शब्दकल्पद्रुम' (भाग 5, पृष्ठ 205) में इस शब्द का अर्थ 'संसर्ग-विशिष्ट' किया गया है तथा संसर्गोऽस्मास्तीति इनि:” व्युत्पत्ति के अनुसार संसर्ग' शब्द में 'इनि' प्रत्यय का प्रयोग करके इस शब्द की सिद्धि बतायी गयी है। साथ ही वे स्पष्ट करते हैं कि "विष्णु-व्यास-जाबालवचनैः सामान्येन पापिष्ठसंसर्गी प्राणी भवति इति प्रतिपादनात् संसर्ग पापिष्ठस्यापि संसर्गी पापयुक्तो भवतीति एभिरेव प्रतिपादितम्।” ।
'समयसार' के ही एक अन्य टीकाकार आचार्य बालचन्द्र अध्यात्मी ने अपनी कन्नड़ टीका में भी 'संसग्गि' को ही मूलपाठ मानते हुये इसके अर्थ के रूप में जयसेनाचार्यकृत टीका के शब्दों को ही स्वीकृत किया है तथा “संसग्गिं - बहिरंगवचन-कायगतसंसर्ग” —ऐसा स्पष्ट लिखा है।
यह अत्यन्त खेद की बात है कि ताड़पत्रीय प्रतियों में उपलब्ध आचार्य कुन्दकुन्द के इस सोद्देशिक प्रयोग ‘संसग्गि' को प्राय: सभी विद्वानों/सम्पादकों/प्रकाशकों ने संसग्गं' बना दिया है, जो कि 'संसर्ग' शब्द की तुकान्त परिणति है। इसमें वह अर्थगौरव भी सुरक्षित नहीं है, जो कि 'संसग्गि' पद में है। वस्तुत: आचार्य कुन्दकुन्द ने पुण्य एवं पाप
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प्राकृतविद्या+ अक्तूबर-दिसम्बर'98