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हमें कभी माफ नहीं करेगी तथा इस शताब्दी के इन भाषा-उपेक्षाकारी विद्वानों को शास्त्रों, आम्नाय एवं मूल अभिप्राय का सर्वाधिक घातक' कहा जायेगा। क्योंकि इसका जो अनिष्ट सहस्राब्दियों में नहीं हुआ, वह इन तथाकथित पण्डितों एवं इन्हें प्रोत्साहन देने वाले श्रमणवर्ग के द्वारा बीसवीं शताब्दी में होने जा रहा है। आज आवश्यकता है कि हम समय रहते सावधान हो जायें, तथा पूरी शताब्दी में हुई असावधानी को शताब्दी के अंतिम चरण में 'शौरसेनी प्राकृत' को सीखकर सुधार लें तथा अंत भला सो भला' की उक्ति को जीवन में चरितार्थ करें - ऐसा विनम्र अनुरोध साधुवर्ग, विद्वज्जनों एवं सम्पूर्ण समाज से है।
‘समयसार के पाठ' नामक इस स्तम्भ के माध्यम से ऐसे पाठों का क्रमश: सप्रमाण विस्तृत विवेचन इसी दृष्टि को जागृत करने के लिए किया जा रहा है, और आगे भी होता रहेगा।
ऐसे संसार से पलायन ही जीवन है 'राजा राक्षस-रूपेण व्याघ्ररूपेण मन्त्रिणः ।
लोकाश्चित्ररूपेण य: पलायति स जीवति।।' अर्थ:-जहाँ पर शासक राक्षसरूप से है, मन्त्री व्याघ्ररूप से है और प्रजा के लोक चित्र से है, वहाँ से जो भाग जाता है, वही जीवित रहता है। .. प्रजा की भलाई-बुराई का सारा भार शासक के ऊपर होता है। यदि शासक सदाचारी एवं न्यायशील होता है, तो प्रजा में भी ये सारे गुण क्रमश: उतर जाते हैं। **
निरोगी कौन? 'नरो हिताहारविहारसेवी, समीक्ष्याकारी विषयेष्वसक्तः ।
दाता सम: सत्यपर: क्षमावनाप्तोपसेवी च भवत्यरोगः।।' अर्थ:-हित-मित आहार और विहार का सेवन करनेवाला, विचारपूर्वक कार्य करनेवाला, काम-क्रोधादि विषयों पर आसक्त न रहनेवाला, दान देनेवाला, सभी प्राणियों पर समता दृष्टि रखनेवाला, सत्यनिष्ठ, सहनशक्तियुक्त और आप्त पुरुषों की सेवा करनेवाला मनुष्य रोगरहित होकर सदा सुखी रहता है।
व्याकरण-शास्त्र का महत्त्व "न्यायशास्त्र और व्याकरणशास्त्र पढ़ने वालों की भी तली का बैल, चिल्लाता हुआ मेंढा' आदि दृष्टान्तों द्वारा खिल्लियाँ उड़ाई जाती थीं; किन्तु ये सब मूर्खता के युग अब नहीं रहे हैं। विचारवान् परीक्षक उक्त उपहासों से नहीं घबड़ा कर बहुत कुछ आगे बढ़ गये हैं। और अपना ध्येय भी प्राप्त कर लिया है।"
-पं० माणिकचंद्र कौन्देय, न्यायाचार्य, धर्मफल सिद्धान्त, पृष्ठ 35 **
प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर'98
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