Book Title: Prakrit Vidya 1998 10
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 66
________________ गुरु-वन्दना (परमपूज्य आचार्यश्री विद्यानन्द जी मुनिराज को समर्पित) -डॉ० कपूरचंद जैन हे युगसृष्टा ! हे युगाक्रान्त ! हे युगदृष्टा ! हे युगप्रधान ! हे युगदाता ! हे युगप्रबोध ! पाता तुममें है जगत् बोध । हे धर्मरूप ! हे धर्मजनक ! तुम जैसा जग में कौन कनक? हे धर्मसार ! हे ग्रन्थसार ! हे ग्रन्थ-प्रणेता ! बार-बार ! हे धर्म-दिवाकर ! धर्मवीर ! हे कर्मनाशस्त ! कर्मवीर ! हे निष्कलंक निकाम-काम ! हो जगतीतल के तुम ललाम। रत्नत्रय तुममें पा विकास, दशधर्मों ने पाया प्रकाश । षद्रव्यमयी तव विशदरूप, दिक्-अम्बर वातरसन-स्वरूप।। स्वातन्त्र्य वस्तु के उद्घोषक, जीवन-स्वतंत्रता अवबोधक। पाते विद्या में सुख अनन्त, हो इसीलिए विद्यानन्द ।। 'प्राकृतभाषा' के तुम गायक, हो 'शौरसेनी' के उन्नायक। करते हैं तुमको सब वन्दन, मेरे भी लो शत-शत वन्दन।। मेरे भी लो शत-शत वन्दन ! जिनपूजा का फल 'यत्सुखं त्रिषु लोकेषु व्याधि-व्यसन-वर्जितम् । ____ अभयं क्षेममारोग्यं स्वस्तिरस्तु विधायिने ।।' अर्थ:-(यत्सुखं) जो सुख (व्याधिव्यसनवर्जितम्) व्याधि से एवं व्यसन से रहित (त्रिषु लोकेषु) तीनों लोकों में होता है, वह सुख (अभयं) भयरहित (आरोग्य) आरोग्य-युक्त (विधायने) इस शुभ कार्य करनेवाले को (क्षेमं) कल्याणप्रद हो। 0064 प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर'98

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