________________
है, के अनुसार माघनन्दि का काल वीर-निर्वाण सं0 614 में समाप्त होता है, तत्पश्चात् धरसेन का काल प्रारम्भ होता है। वृहट्टिप्पणिका और प्राकृत-पट्टावली के काल-सूचन के सन्दर्भ से ऐसा प्रकट होता है कि धरसेन ने आचार्य-पदारोहण से चौदह वर्ष पूर्व इस ग्रन्थ की रचना की हो। इस कोटि के जटिल ग्रन्थ की रचना करने के प्रसंग तक वे अवस्था में प्रौढ़ नहीं, तो युवा अवश्य रहे होंगे।
भाण्डारकर ओरिएण्टल रिसर्च इन्स्टीट्यूट, पूना (महाराष्ट्र) के ग्रन्थ-भण्डार में जोणिपाहुड की एक हस्तलिखित प्रति है, जिसका लेखन-काल वि०सं० 1582 है।
जोणिपाहुड : मंत्र-विधा की एक विलक्षण कृति:—यह ग्रन्थ मंत्र-विद्या, तंत्र-विज्ञान आदि के विश्लेषण—विवेचन की दृष्टि से बड़ा महत्त्वपूर्ण समझा जाता है। दिगम्बर तथा श्वेताम्बर–दोनों जैन-सम्प्रदायों में यह समादृत रहा है। डॉ० जगदीशचन्द्र जैन ने इसके सम्बन्ध में जो सूचक तथ्य उपस्थित किये हैं, उन्हें यहाँ उद्धृत किया जा रहा है। निशीथ चूर्णि' (4, पृ० 375 साइक्लोस्टाइल प्रति) के कथनानुसार आचार्य सिद्धसेन ने जोणिपाहुड' के आधार से अश्व बनाये थे, इसके बल से महिषों को अचेतन किया जा सकता था और इससे धन पैदा कर सकते थे। प्रभावक चरित (5, 115127) में इस ग्रन्थ के बल से मछली और सिंह उत्पन्न करने का तथा विशेषावश्यक 'भाष्य' (गाथा 1775) की हेमचन्द्रकृत टीका में अनेक विजातीय द्रव्यों के संयोग से सर्प, सिंह आदि प्राणी और मणि, सुवर्ण आदि अचेतन पदार्थों के पैदा करने का उल्लेख मिलता है। कुवलयमालाकार के कथनानुसार 'जोणिपाहुड' में कही हुई बात कभी असत्य नहीं होती। जिनेश्वरसूरि ने अपने ‘कथाकोषप्रकरण' में भी इस शास्त्र का उल्लेख किया है। इस ग्रन्थ में 800 गाथाएं हैं। कुलमण्डन सूरि द्वारा विक्रम संवत् 1473 (ईसवी सन् 1416) में रचित 'विचारामृत संग्रह' (पृष्ठ 9 आ) में योनिप्राभृत' को पूर्व श्रुत से चला आता हुआ स्वीकार किया है:“अग्गेणिपुव्वणिग्गयपाहुडसत्थस्स मज्झयारंमि, किंचि उद्देसदेसं धरसेणो वज्जियं भणइ । गिरि उज्जितठिएण पच्छिमदेसे सुट्ठगिरिणयरे, बुड्डतं उद्धरियं दूसमकालप्पयामि।।"
प्रथम खण्डे–“अट्ठावीस सहस्सा गाहाणं जत्थ वन्निया सत्थे । अग्गेणिपुब्बमज्झे संखेवं वित्थरे मुत्तुं । चतुर्थखण्डप्रान्ते योनिप्राभृते।"
इस कथन से ज्ञात होता है कि 'अग्रायणी पूर्व' का कुछ अंश लेकर धरसेन ने इस ग्रन्थ का उद्धार किया है तथा इसमें पहले 28 हजार गाथाएं थीं, उन्हीं को संक्षिप्त करके योनि-प्राभृत' में कहा है।
निष्कर्ष:-उपर्युक्त समग्र विवेचन के परिप्रेक्ष्य में धरसेन के समय के सम्बन्ध में हमारे समक्ष दो प्रकार की स्थितियाँ हैं। तिलोयपण्णत्ति, हरिवंशपुराण, धवला, जयधवला, श्रुतावतार आदि के अनुसार देखा जाये, तो वीर निर्वाण 681 के पश्चात्
प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर'98
0037