Book Title: Prakrit Vidya 1998 10
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

View full book text
Previous | Next

Page 46
________________ धवलाकार आचार्य वीरसेन ने जहाँ पाँचवाँ - 'वर्गणा खण्ड' समाप्त होता है, इन सम्बन्ध में उल्लेख किया है, जो इसप्रकार है: “प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध तथा प्रदेशबन्ध के रूप में बन्ध- विधान चतुर्विध— चार प्रकार का है। भट्टारक भूतबलि ने महाबन्ध में इन चारों प्रकार के बन्धों का सप्रपंच — विस्तृत विवेचन किया है; अत: हमने उसका यहाँ उल्लेख नहीं किया। इस सन्दर्भ में समग्र 'महाबन्ध' यहाँ प्ररूपित है; अत: बन्ध - विधान समाप्त किया जाता है।” 11 अस्तु, छठे खण्ड 'महाबन्ध' में आचार्य भूतबलि द्वारा प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध तथा प्रदेशबन्ध का भेदोपभेदों सहित अनेक अपेक्षाओं से विस्तृत के साथ-साथ अत्यन्त सूक्ष्म एवं गहन विश्लेषण किया गया है । सारांश: – 'षट्खण्डागम' के छहों खण्डों के इस संक्षिप्त परिचय से यह स्पष्ट है कि कर्म-तत्त्व - विज्ञान के निरूपण की दृष्टि से यह ग्रन्थ निःसन्देह भारत के दार्शनिक वाङ्मय में अपना असाधारण स्थान लिए हुए है। कसायपाहुड ( कषायप्राभृत) आचार्य धरसेन का वर्णन करते समय आचार्य गुणधर के सम्बन्ध में पीछे संकेत किया गया है। जिस प्रकार धरसेन के इतिहास के विषय में हमारे समक्ष निश्चायक स्थिति नहीं है, उसी प्रकार गुणधर का भी कोई ऐतिहासिक इतिवृत्त हमें उपलब्ध नहीं है । धरसेन के विषय में, जैसा कि पिछले पृष्ठों में चर्चित हुआ है, नन्दिसंघ की प्राकृत - पट्टावली में माघनन्दि के पश्चात् उल्लेख तो है, गुणधर के सम्बन्ध में इतना भी नहीं है। 'श्रुतावतार' के लेखक इन्द्रनन्दि ने गुणधर तथा धरसेन – दोनों के इतिवृत्त के सम्बन्ध में अपनी अज्ञता ख्यापित की ही है, जिसकी चर्चा पहले की जा चुकी है। गुणधर के दैहिक जीवन का इतिहास हमें नहीं मिल रहा है—यह सच है; पर तत्त्वज्ञान के क्षेत्र में उनकी जो बहुत बड़ी देन – उनकी कृति कसायपाहुड है, वह सदा उन्हें अजर-अमर बनाये रखेगी । व्यक्ति मर जाता है, विचार नहीं मरते । यदि किसी के विचार जीवित हैं, तो निश्चय की भाषा में उसे 'मृत' नहीं कह सकते। 12 आधार: – षट्खण्डागम की तरह कसायपाहुड भी द्वादशांग से सीधे सम्बद्ध वाङ्मय के रूप में प्रसिद्ध है। चौदह पूर्वों में पाँचवाँ 'ज्ञानप्रवादपूर्व' है। उसकी 'दशम वस्तु' के 'तृतीय पाहुड' का नाम पेज्जदोसपाहुड है। उसी के आधार पर कसायपाहुड की रचना हुई; अत: अपने आधारभूत 'पाहुड' के नाम पर यह पेज्जदोसपाहुड' के नाम से भी अभिहित किया जाता है। पैज्जदोस' का संस्कृतरूप प्रेयस् -द्वेष' अर्थात् राग-द्वेष है। यही संसार का मूल है, जिसे सही रूप में जाने बिना, समझे बिना, उच्छिन्न किये बिना बन्धन से छुटकारा नहीं हो सकता । विषय:- प्रस्तुत विषय में क्रोध आदि कषायों का स्वरूप, उनके रागात्मक तथा, प्राकृतविद्या�अक्तूबर-दिसम्बर 98 00 44

Loading...

Page Navigation
1 ... 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128