Book Title: Prakrit Vidya 1998 10
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 59
________________ प्रेरक व्यक्तित्व डॉ० हुकमचन्द भारिल्ल –श्रीमती ममता जैन बीसवीं शताब्दी में दिगम्बर जैनसमाज का इतिहास एक ऐस महापुरुष के अनन्य उपकारों का चिरऋणी है, जिसने विद्वानों का ऐसा अक्षयवृक्ष लगाया था, जिसके मधुर फलों से समाज आज तक लाभान्वित हो रही है; वे थे स्वनामधन्य गुरुवर गोपालदास जी बरैया। आपके द्वारा मुरैना (म०प्र०) में स्थापित श्री गोपाल दि० जैन सिद्धांत महाविद्यालय से शिक्षा ग्रहण कर अनेकों मनीषी विद्वान् निकले हैं, जिन्होंने अपनी ज्ञानज्योति से समाज को तो लाभान्वित एवं गौरवान्वित किया ही है; साहित्य और संस्कृति का पोषण एवं संरक्षण भी प्रचुर परिमाण में किया है। इसी गरिमाशाली विद्वत्सन्तति के एक विशिष्ट विद्वान् हैं डॉ० हुकमचन्द भारिल्ल। जीवन-परिचय:-बुन्देलखण्ड की धरती को विद्वानों की खान' अवश्य कहा जा सकता है। कम से कम उन्नीसवीं एवं बीसवीं शताब्दी का इतिहास तो स्पष्ट साक्षी है कि दिगम्बर जैन समाज में जितने भी विद्वान् हये हैं, उनमें से लगभग 80% विद्वान् मात्र बुंदेलखंड अंचल से ही आये हैं। इसका मूलकारण है यहाँ की जैन समाज की जैन तत्त्वज्ञान एवं सदाचार में गहन रुचि। नितान्त अनपढ़ ग्रामीण महिलायें भी भक्तामर स्तोत्र, तत्त्वार्थसूत्र, आलोचनापाठ एवं नित्यपूजन आदि कंठस्थ याद रखती है तथा मंदिरों में नित्यप्रति पूजनपाठ करनेवालों एवं धार्मिक अवसर-विशेष पर उपस्थित होनेवाला विशाल जनसमुदाय स्पष्ट कर देता है कि यहाँ की समाज में धार्मिक संस्कार कितने गहरे बैठे हुये हैं। बिना देवदर्शन किये एक छोटे बच्चे को भी माँ भोजन नहीं देती है, कहती है कि “पहिले मंदिर दर्शन करके आओ, तब भोजन मिलेगा।" ऐसे संस्कारी अंचल के केन्द्र ‘ललितपुर जिले के अन्तर्गत एक छोटा-सा गाँव है 'बरौदास्वामी' । वहाँ के निवासी श्रीमान् हरदास जी एवं उनकी सहधर्मिणी श्रीमती पार्वतीबाई (नन्नीबाई) एक मध्यवर्गीय परिवार के धार्मिक संस्कार-सम्पन्न आदर्श दम्पत्ति थे। इस गाँव के समीप ही एक धार्मिक क्षेत्र है—सिरोंज । वहाँ लगने वाले वार्षिक मेले में ये प्रतिवर्ष जाते तथा वहाँ विद्वानों के धार्मिक व्याख्यान सुनकर ये अत्यन्त प्रभावित होते थे। इनके मन में भी भावना उमड़ती कि काश ! उनके बच्चे भी ऐसे विद्वान् बनें, जो हजारों की जनसभा में जैन तत्त्वज्ञान को सुना-समझा सकें।' संभवत: इसी प्रबल भावना के फलस्वरूप इनके आँगन में ज्येष्ठ कृष्ण अष्टमी, शनिवार, 25 मई 1935 ई० को एक ऐसा पुत्ररत्न प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर'98 0057

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