Book Title: Prakrit Vidya 1998 10
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 60
________________ उत्पन्न हुआ, जिसने देश-विदेश में जैनों एवं जैनेतरों के बीच भी जैनतत्त्वज्ञान का अत्यन्त प्रभावी रीति से प्रचार-प्रसार किया तथा यह समर्पित नैष्ठिक कार्य आज तक निरन्तर चालू है। वही पुत्ररत्न आज 'डॉ० हुकमचंद भारिल्ल' के नाम से विख्यात हैं। शिक्षा:—आपने अपने अग्रज (पं० रतनचंद भारिल्ल) के साथ प्राईमरी की शिक्षा गाँव से 5 कि०मी० दूर स्थित ननौरा की प्राईमरी पाठशाला से ग्रहण की, जिसके लिए आपको प्रतिदिन पैदल जाना-जाना पड़ता था। फिर आपके पिताश्री ने धार्मिक शिक्षा एवं संस्कारों की प्राप्ति के निमित्त आपको दि० जैन क्षेत्र पपौरा जी भेज दिया, जहाँ आप मात्र चार माह तक ही अध्ययन कर सके। इसके उपरान्त सन् 1945 ई० में आपने देश के सुप्रतिष्ठित 'श्री गोपाल दिगम्बर जैन सिद्धांत महाविद्यालय, मुरैना (म०प्र०)' में प्रवेश लेकर जैनदर्शन, न्याय एवं तत्त्वज्ञान का गहन अध्ययन किया तथा यहीं से शास्त्री' एवं 'न्यायतीर्थ' की परीक्षायें उच्चश्रेणी में उत्तीर्ण की। फिर 1960 ई० में इलाहाबाद से हिंदी की प्रतिष्ठित उपाधि साहित्यरत्न' को भी श्रेष्ठ अंकों के साथ अर्जित किया। किंतु इन सब उपाधियों की विश्वविद्यालय स्तर पर कोई विशेष मान्यता नहीं थी, अत: लौकिक दृष्टि से 1962 में उच्च माध्यमिक (हायर सेकेण्ड्री) एवं 1965 ई० में स्नातक (बी०ए०) की परीक्षायें स्वयंपाठी छात्र के रूप में उत्तीर्ण करने के बाद इन्दौर (म०प्र०) के 'शासकीय आर्ट एण्ड कॉमर्स कॉलेज' से 'स्नातकोत्तर परीक्षा' (एम०ए०) हिन्दी भाषा एवं साहित्य' विषय से उत्तीर्ण की। यहीं से 1971 ई० में आपने अपना विख्यात शोध-प्रबन्ध 'पण्डित टोडरमल : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व' पूर्ण किया, जिस पर आपको देवी अहिल्याबाई विश्वविद्यालय, इन्दौर ने डॉक्टरेट (पी-एच०डी०) की सम्मानित उपाधि प्रदान की। __आजीविका:-बीसवीं शताब्दी के चौथे-पाँचवें दशकों में भारतीय ग्राम्य-अंचलों में विवाह का दायित्व माता-पिता जल्दी ही पूर्ण कर लेते थे, तथा भले ही इस बंधन में बंधने वाले दम्पत्ति-युगल को इस बारे में कुछ बोध हो या नहीं, किंतु यह बंधन उन्हें सामाजिकरूप से स्वीकार करना पड़ता था। इसी क्रम में आपका भी विवाह शीघ्र हो गया और पारिवारिक दायित्व कंधों पर आने से आजीविका की अनिवार्यता देखते हुये आपने सन् 1954 ई० में सर्वप्रथम पारौली के जैन मिडिल स्कूल में प्रधानाध्यापक' के पद पर कार्य प्रारम्भ किया। फिर अधिक तालमेल न बन पाने से सन् 1956 ई० में बबीना (उ०प्र०) में अपना निजी व्यापार प्रारंभ किया। किंतु उसमें भी मन नहीं रम सका, तो 1957-58 के दो वर्षों तक अशोकनगर (म०प्र०) की जनसमाज में धार्मिक शिक्षण का कार्य किया। फिर यहीं पर हायर सेकेण्ड्री स्कूल में संस्कृत एवं हिंदी के शिक्षक के रूप में 1959 से 1965 तक कार्यरत रहे। आगे बढ़ने और कुछ कर दिखाने की ललक आपको इन्दौर ले गयी, जहाँ पर आपने 1966-67 तक 'श्री त्रिलोकचन्द जैन हायर सेकेण्ड्री स्कूल' में संस्कृत एवं हिन्दी विषयों का अध्यापनकार्य किया। अन्तत: जयपुर-निवासी 0058 प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर'98

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