Book Title: Prakrit Vidya 1998 10
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 57
________________ 'विज्ञानवाद' अपनी अभिनव उद्भावना और सम्भावना को लेकर दार्शनिक सिंहासन पर प्रतिष्ठित हो रहे थे। तभी आचार्य कुंदकुंद ने अत्यन्त सादगी और स्वाभाविक भाषा-शैली में आगमिक सत्य को उपन्यस्त कर लोगों की तत्कालीन भावना और प्रभावना का यथेष्ट प्रक्षालन किया था। उन्होंने इन वादों और विवादों से ऊपर उठकर आत्मवाद का स्वरूप प्रदान किया था। भारतीय और भारतेतर सभी दर्शनों में आत्मतत्त्व की विवेचना अपने-अपने ढंग से निरूपित है। जैनदर्शन में भी आत्मा के अस्तित्व तथा उसके स्वरूपादि का विवेचन हुआ है। आचार्य कुंदकुंद जैनदर्शन के प्रखर प्रवक्ता तथा आध्यात्मिक अन्वेषक थे। उन्होंने आत्मस्वरूप विशेष की विवेचना जिस सुन्दर ढंग से प्रस्तुत की है, यद्यपि वह सब बीजरूप में जैन-आगमों में पूर्वत: विद्यमान है; किन्तु अपनी प्रतिभा, मेधा और व्याख्यानबल के आधार पर आगम के गूढ़तम रहस्यों को 'नयों' और 'निक्षेपों' के माध्यम से सरल तथा सुबोध शैली में अवश्य स्पष्ट किया है कि 'आगम में अमुक बात किस अपेक्षा नय और किस निक्षेप के साथ कही गयी है। कौन-सी दृष्टि यथार्थ-स्वरूप को प्रकट करती है।' -इस दृष्टि से आचार्य की यह अभिनव देन मानी जायेगी। 'समयसार' प्रभृति ग्रंथों में उन्होंने निश्चयनय विशेष का अवलम्बन लिया है। उनकी दृष्टि में समयसार' अर्थात् निश्चयनय की दृष्टि में जो ज्ञाता है, वही वस्तुत: आत्मा है। - आत्मा का सम्पूर्ण वैशिष्ट्य ज्ञान में केन्द्रित कर तत्सम्बन्धित समस्त भेदों को अभेद में बदल दिया है। आत्मा ही सर्वस्व है। उसका अवलम्बन ही मुक्ति है, किन्तु इस अभेद दृष्टि से वे सन्तुष्ट नहीं हुये; क्योंकि उनके काल में जो दार्शनिक द्वन्द्व था, वह 'अद्वैतवाद' का था। यथा-'उपनिषद्' का ब्रह्म-अद्वैत, वेदान्त का आत्म-अद्वैत, बौद्धदर्शन का शून्य-अद्वैत और विज्ञान-अद्वैत आदि। ऐसे में आचार्य कुन्दकुन्द ने जैनदर्शन के निश्चयप्रधान अध्यात्मवाद को समकालिक दार्शनिक-चेतना के समक्ष प्रस्तुत किया तथा 'भाव-निक्षेप' और निश्चयनय के माध्यम से जैनतत्त्वों का सविस्तार निरूपण कर जैनदर्शन को अन्य दर्शनों के समक्ष अभिनवरूप में प्रकट किया। इन दोनों का आश्रय लेने पर ही द्रव्य और पर्याय, द्रव्य और गुण, धर्म और धर्मी, अवयव और अवयवी आदि अनेक भेद मिटकर अभेद की स्थिति आ जाती है। और इसप्रकार वेदान्त का अद्वैतवाद, बौद्ध का विज्ञानवाद–इन सबका समाधान इन्हीं दोनों-भावनिक्षेप और निश्चयनय में ही गर्भित है। ये कोई नई चीज नहीं है, जैनागम में इसका निरूपण बहुत पहिले से ही बीजरूप में था, जिसे आचार्य कुंदकुंद ने वृक्ष जैसा आकार/रूप दे दिया है। ____आचार्य कुंदकुंद आगम को स्पष्ट करते हुये कहते हैं कि “निश्चयनय से वस्तु के पारमार्थिक एवं तात्त्विक शुद्धस्वरूप को जाना जा सकता है; जबकि व्यवहारनय से वस्तु के अपारमार्थिक, अतात्त्विक एवं अशुद्धस्वरूप को।" आचार्यश्री आगे कहते हैं कि “वस्तु प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर'98 0055

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