Book Title: Prakrit Vidya 1998 10
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 47
________________ द्वेषात्मकरूप में परिणत होने की विविध स्थितियाँ आदि का अत्यन्त सूक्ष्म एवं मार्मिक विश्लेषण है। रचना:-कसायपाहुड की रचना गाथा-सूत्रों में हुई है। वे संख्या में 233 हैं। सूत्र बहुत संक्षेप में हैं, पर गहन और गूढ़ अर्थ से संपृक्त हैं। आचार्य गुणधर ने इस ग्रन्थ की रचना कर षष्ट्खण्डागम के माध्यम से प्रसृत श्रुत-परम्परा को और अभिवर्द्धित किया है। कहा जाता है, आचार्य गुणधर ने इसकी रचना कर आचार्य नागहस्ती तथा आर्यमंक्षु के समक्ष इसे व्याख्यात किया। उससे यह परम्परा आगे भी गतिशील रही। व्याख्या-साहित्य:-आचार्य यतिवृषभ ने कसायपाहुड पर प्राकृत में छह सहस्र-श्लोक-प्रमाण चूर्णि-सूत्रों की रचना की। ऐसा माना जाता है कि उच्चारणाचार्य ने आचार्य यतिवृषभ से उनके चूर्णि-सूत्रों का अध्ययन किया और उन पर द्वादश-सहस्र-श्लोक-प्रमाण उच्चारणसूत्र रचे। आज यह साहित्य अनुपलब्ध है। कसायपाहुड पर अत्यन्त महत्त्वपूर्ण व्याख्या, जिसने इस महान् ग्रन्थ को और अधिक गौरवान्वित किया, स्वनामधन्य आचार्य वीरसेन तथा उनके सुयोग्य शिष्य आचार्य जिनसेन की जयधवला टीका है, जिसके सम्बन्ध में पहले भी यथाप्रसंग चर्चा आई है। यह साठ-हजार-श्लोक-प्रमाण विशाल टीका है, जिसका प्रारम्भ का बीस सहस्र-श्लोक-प्रमाण भाग आचार्य वीरसेन द्वारा तथा आगे का चालीस हजार-श्लोक-प्रमाण भाग आचार्य जिनसेन द्वारा रचित है। इस टीका का कितना अधिक महत्त्व है, यह इसी से अनुमान किया जा सकता है कि जिसप्रकार धवला के कारण षट्खण्डागम के पाँच खण्ड 'धवल', छठा खण्ड-महाबन्ध 'महाधवल' कहा जाता है, उसी प्रकार 'जयधवला' के कारण कसायपाहुड' को 'जयधवल कहा जाता है। कलेवर:-कसायपाहुड 15 अधिकारों में विभक्त है, जो इसप्रकार है: 1. पेज्जदोसविभक्ति, 2. स्थितिविभक्ति, 3. अनुभागविभक्ति, 4. प्रदेशविभक्ति-झीणाझीणस्थित्यन्तिक, 5. बन्धक, 6. वेदक, 7. उपयोग, 8. चतुःस्थान, 9. व्यंजन, 10. दर्शनमोहोपशामना, 11. दर्शनमोहक्षपणा, 12. संयमासंयमलब्धि, 13. संयमलब्धि, 14. चारित्रमोहोपशामना तथा 15. चारित्रमोहक्षपणा। _ अधिकारों के नाम से ही यह सुज्ञेय है कि आत्मा की अन्तर्वृत्तियों के विश्लेषण तथा परिष्करण की दृष्टि से यह ग्रन्थ कितना महत्त्वूपर्ण है। षट्खण्डागम की भाषा:-मथुरा के आस-पास का क्षेत्र कभी शूरसेन जनपद के नाम से प्रसिद्ध रहा है। प्राकृतकाल में वहाँ जो भाषा प्रचलित रही है, वह 'शौरसेनी प्राकृत' कही जाती है। यह भाषा शूरसेन जनपद के अतिरिक्त पूर्व में वहाँ तक, जहाँ से 'अर्द्धमागधी' का क्षेत्र शुरू होता था, पश्चिम में वहाँ तक जहाँ से पैशाची' का क्षेत्र शुरू होता था, प्रसृत रही है। कहने का अभिप्राय यह है कि एक समय ऐसा रहा, जब यह प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर'98 0045

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