Book Title: Prakrit Vidya 1998 10
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 51
________________ 8. अठतीसम्हि सतसए विक्कामरायंकिए सु-सगणामे, वासे सुतरेसीए भाणुविलग्गे धवलपक्खे। जगतुंगदेवरज्जे रियम्हि कुंभम्हि राहुणा कोणे, सूरे तुलाए संते गुरुम्हि कुलविल्लए होते।। चावम्हि तरणिवुत्ते सिंघे सुक्कम्मि मीणे चंदम्मि, कत्तियमासे एसा टीका हु समाणिआ धवला।। -(धवला-प्रशस्ति, 6-8) 9. इतिश्री वीरसेनीया टीका सूत्रार्थदर्शिनी, वाटग्रामपुरे श्रीमद्गुर्जरार्यानुपालिते फाल्गुने मासिक पूर्वाणे दशम्यां शुक्लपक्षके, प्रवर्द्धमानपूजोरूनन्दीश्वरमहोत्सवे आमेघवर्षराजेन्द्रराज्यप्राज्यगुणोदया, निष्ठिता प्रचयं यायादाकल्पान्तमनल्पिका एकोन्नषष्टिसमधिकसप्तशताब्देषु शकनरेन्द्रस्य, समतीतेषु समाप्ता जयधवला प्राभृतव्याख्या।। -(जयधवला-प्रशस्ति, 6-9) 10. बन्धन के भेद—बन्ध, बन्धनीय, बन्धक, बन्ध-विधान।। 11. जं तं बंधविहाणं तं चउव्विहं, पयडिबंधो विदिबंधो अणुभागबंधो पदेसबंधो चेदि। एदेसिं चदुण्णं बंधाणं विहाणं भूतबलिभडारएण महाबंधे सप्पवंचेण लिहिदं ति अम्हेहि एत्थ ण लिहिदं । तदो सयले महाबंधे एत्थ परूविदे बंधविहाणं समप्पदि।" ___ -(षट्खण्डागम, खण्ड 5, भाग 4, पुस्तक 14, पृ० 564) 12. “गुणधर-धरसेनन्वयगुर्वोः पूर्वापरक्रमोऽस्माभिः । न ज्ञायते तदन्वयकथकागममुनिजनाभावात् ।। 151 ।।" • 13. Comparative Grammar of the Prakrit Languages, Page 20-21 14. प्रकृति : संस्कृतम् . -(साभार उद्धृत : आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन, खण्ड 2, पृष्ठ 653-671) 'विजयधवला' आज कहाँ है? "धवलो हि महाधवलो, जयधवलो विजयधवलश्च। ग्रन्था श्रीमद्भिरमी प्रोक्ता: कविधातरस्तस्यात् ।।" इस पद्य में उल्लिखित 'धवल', 'महाधवल' एवं 'जयधवल' —ये तीन महान् टीकाग्रन्थरूप सिद्धान्तशास्त्र तो आज उपलब्ध हैं; किन्तु 'विजयधवल' नामक एक अन्य ऐसे ही ग्रन्थ का इसमें उल्लेख है, जो कि आज तक अनुपलब्ध है। यह मनीषियों के द्वारा | गंभीरतापूर्वक अनुसन्धेय है। ___ वक्तृत्व मोक्षमार्ग नहीं है जिसप्रकार वीणा का रूप-लावण्य तथा तंत्री को बजाने का सुन्दर ढंग मनुष्यों के मनोरंजन का ही कारण होता है, उससे कुछ साम्राज्य की प्राप्ति नहीं हो जाती; उसी प्रकार विद्वानों की वाणी की कुशलता, शब्दों की धारावाहिकता, शास्त्र-व्याख्यान की कुशलता और | विद्वत्ता भोग ही का कारण हो सकती है, मोक्षमार्ग या मोक्ष नहीं। ** प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर'98 0049

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