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भेद" के आधार पर प्रणीत हुआ है । जीवट्ठाण के अन्तर्गत आठ अनुयोगद्वार और नौ चूलिकाएं हैं। आठ अनुयोगद्वारों के नाम इसप्रकार हैं: 1. सत्, 2. संख्या, 3. क्षेत्र, 4. स्पर्शन, 5. काल, 6. अन्तर, 7 भाव तथा 8. अल्पबहुत्व। नौ चूलिकाएं निम्नांकित हैं:1. प्रकृतिसमुत्कीर्ताना, 2. स्थानसमुत्कीर्तना, 3-5. तीन महादण्डग, 6. जघन्य स्थिति, 7. उत्कृष्ट स्थिति, 8. सम्यक्त्वोत्पति तथा 9. गति - अगति ।
उपर्युक्त अनुयोगद्वारों तथा चूलिकाओं में विवेच्य विषयों का गुणस्थानों तथा मार्गणाओं के आधार पर बड़ा विस्तृत विवेचन हुआ है।
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दूसरा खण्ड:—दूसरे खण्ड का नाम 'खुद्दाबंध' है, जिसका संस्कृत-रूप ‘क्षुल्लक बन्ध’ होता है। यह 'कर्मप्रकृति पाहुड़' के 'बन्धक' संज्ञक अनुयोगद्वार के 'बन्धक' नामक भेद के आधार पर सृष्ट हुआ है। यह खण्ड ग्यारह अधिकारों में विभक्त है, जो निम्नांकित हैं:1. स्वामित्व, 2. काल, 3. अन्तर, 4. भंगविचय, 5. द्रव्यप्रमाणानुगम, 6. क्षेत्रानुगम, 7. स्पर्शनानुगम, 8. नानाजीवकाल, 9. नाना जीव - अन्तर, 10. भागाभागानुगम तथा 11. अल्पबहुत्वानुगम ।
प्रस्तुत खण्ड में कर्म बाँधने वाले जीव, कर्म-बन्ध के भेद आदि का उपर्युक्त अधिकार संकेतक इन ग्यारह प्ररूपणाओं द्वारा विवेचन किया गया है।
तीसरा खण्ड: – तीसरा खण्ड 'बन्धस्वामित्वविचय' संज्ञक है। 'कर्मप्रकृति पाहुड' के बन्धन अनुयोगद्वार का 'बन्ध- विधान' नामक भेद प्रकृति, स्थिति, अनुभाग तथा प्रदेश के रूप में चार प्रकार का है। प्रकृति के दो भेद हैं— मूल तथा उत्तर । उत्तर प्रकृति दो प्रकार की है— एकैकोत्तर तथा अव्वोगाढ़ । एकैकोत्तर प्रकृति के 24 भेद हैं, जो इस प्रकार हैं :
1. समुत्कीर्तना, 2. सर्वबन्ध, 3. नोसर्व, 4. उत्कृष्ट, 5. अनुत्कृष्ट, 6. जघन्य, 7. अजघन्य, 8. सादि, 9. अनादि, 10. ध्रुव, 11. अध्रुव, 12. बन्धस्वामित्वविचय, 13. बन्धकाल, 14. बन्धान्तर 15 बन्धसन्निकर्ष, 16. भंगविचय, 17. भागाभाग, 18. परिमाण, 19. क्षेत्र, 20. स्पर्शन, 21. काल, 22. अन्तर, 23. भाव तथा 24. अल्पबहुत्व ।
इनमें बारहवें 'बन्धस्वामित्वविचय' के आधार पर इस खण्ड की रचना हुई है। इस खण्ड में मुख्यतः निम्नांकित विषयों का विशद विश्लेषण है : – किस जीव के किन-किन प्रकृतियों का कहाँ तक बन्ध होता है, किस जीव का नहीं होता। किस गुणस्थान में कौन-कौन सी प्रकृतियाँ व्युच्छिन्न हो जाती हैं। स्वोदयबन्धात्मक तथा परोदयबन्धात्मक प्रकृतियाँ कौन-कौन-सी हैं, इत्यादि ।
चौथा खण्ड:— चौथा खण्ड वेदना' संज्ञा से अभिहित है। यह 'कर्मप्रकृति पाहुड' के 'कृति' तथा 'वेदना' नामक अनुयोगद्वारों के आधार पर सृष्ट है। इसमें 'वेदना' के विवेचन की मुख्यता है, जो काफी विस्तारपूर्वक किया गया है। इसीकारण यह वेदना खण्ड' के रूप में संज्ञित हुआ है । कृति के अन्तर्गत औदारिक, वैक्रियक, आहारक, तैजस्
प्राकृतविद्या+अक्तूबर-दिसम्बर '98
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