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ही शब्द में आख्यान करने के लिए टीकाकार को 'धवला' नाम खूब संगत लगा हो। आगे चलकर यह नाम प्रिय एवं हृद्य इतना हुआ कि षट्खण्डागम - वाङ्मय 'धवला - सिद्धान्त' के नाम से विश्रुत हो गया ।
धवला की समाप्ति - सूचक प्रशस्ति में उल्लेख हुआ है कि यह टीका कार्तिक मास के 'धवल' या 'शुक्ल पक्ष' की त्रयोदशी के दिन सम्पूर्ण हुई थी। हो सकता है, मास के धवल पक्ष में परिसमाप्त होने के कारण रचयिता के मन में इसे धवला नाम देना जँचा हो
एक और सम्भावना की जा सकती है, इस टीका का समापन मान्यखेटाधीश्वर, राष्ट्रकूटवंशीय नरेश अमोघवर्ष प्रथम में राज्यकाल में हुआ था। राजा अमोघवर्ष उज्ज्वल चरित्र, सात्त्विक भावना, धार्मिक वृत्ति आदि अनेक उत्तमोत्तम गुणों से विभूषित था। उसकी गुणसूचक उपाधियों या विशेषणों में एक 'अतिशय धवल' विशेषण भी प्राप्त होता है। प्रामाणिकरूप में नहीं कहा जा सकता, इस विशेषण का प्रचलन का मुख्य हेतु क्या था? हो सकता है राजा अमोघवर्ष के इन उज्ज्वल, धवल, निर्मल गुणों के कारण यह विशेषण प्रचलित हुआ हो अथवा उसकी देह - सम्पदा – सौष्ठव, गौरत्व आदि के कारण भी लोगों को उसे उस उपाधि से सम्बोधित करने की प्रेरणा हुई हो । अमोघवर्ष विद्वानों, त्यागियों एवं गुणियों का बड़ा आदर करता था । उनके साथ उसका श्रद्धापूर्ण सम्बन्ध था, अतः यह अनुमान करना भी असंगत नहीं लगता कि राजा अमोघवर्ष का उक्त विश्लेषण इस नाम के पीछे प्रेरक हेतु' रहा हो ।
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जैसा भी रहा हो, इस टीका ने केवल दिगम्बर जैन वाङ्मय में ही नहीं, भारतीय तत्त्व-चिन्तन के व्यापक क्षेत्र में निःसन्देह अपने नाम के अनुरूप धवल, उज्जवल यश अर्जित किया। मानों नाम की आवयविक सुषमा ने भावात्मक सुषमा को भी अपने में समेट लिया हो ।
धवला के वैशिष्ट्य: – कहा ही गया है, यह टीका प्राकृत-संस्कृत-मिश्रित है। इसप्रकार की सम्मिश्रित भाषामयी रचना मणि- प्रवाल- न्याय से उपमित की गई है। मणियाँ तथा प्रवाल परस्पर मिला दिये जायें, तो भी वे अपना पृथक्-पृथक् अस्तित्व लिए विद्यमान रहते हैं, उसीप्रकार प्राकृत तथा संस्कृत मिलने पर भी पृथक्-पृथक् दिखाई देती रहती हैं।
टीकाकार द्वारा किये गये इस द्विविध भाषात्मक प्रयोग की अपनी उपयोगिता है । तात्त्विक अथवा दार्शनिक विषयों को तार्किक शैली द्वारा स्पष्ट करने में संस्कृत का अपना एक महत्त्व है। उसका अपना विशिष्ट, पारिभाषिक शब्द- समुच्चय एवं रचना - प्रकार है, जो अनन्य-साधारण है। प्राकृत लोकजनीन भाषा है, जो कभी इस देश में बहु- प्रचलित थी । टीका की रचना केवल पाण्डित्य - सापेक्ष ही न रह जाये, उसमें लोकजनीनता भी व्याप्त रहे, प्राकृत-भाग इस अपेक्षा का पूरक माना जाये, तो अस्थानीय नहीं होगा।
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प्राकृतविद्या+अक्तूबर-दिसम्बर 198