Book Title: Prakrit Vidya 1998 10
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 43
________________ टीकाकार ने अपने समय तक उपलब्ध बहुविध दिगम्बर - श्वेताम्बर - साहित्य का मुक्त रूप से उपयोग किया है। अनेक ग्रन्थों के यथाप्रसंग, यथापेक्ष अंश उद्धृत किये हैं । कहने का अभिप्राय यह है कि उन्होंने अपनी टीका को सम्पूर्णत: समृद्ध एवं सर्वथा उपादेय बनाने का पूरा प्रयत्न किया है। उसकी शैली समीक्षा, विश्लेषण एवं विशद विवेचन की दृष्टि से वास्तव में असाधारण है । समापन : समय:- वीरसेनाचार्य के काल के सम्बन्ध में अनिश्चयात्मकता नहीं है। धवला की अन्तिम प्रशस्ति में उन्होंने ज्योतिष शास्त्रीय शैली में कुछ महत्त्वपूर्ण संकेत किये हैं। स्वर्गीय डॉ० हीरालाल जैन ने प्रशस्ति के उस भाग का, जो धवला की समाप्ति के समय का सूचक है, विशेष परिशीलन एवं सूक्ष्मतया पर्यवेक्षण कर परिष्कृतरूप उपस्थित किया है, जिसके अनुसार, धवला की सम्पूर्णता का समय शक संवत् 738 कार्तिक शुक्ला त्रयोदशी निश्चित होता है। आचार्य वीरसेन के सुयोग्य शिष्य आचार्य जिनसेन ने अपने पूज्यचरण गुरु द्वारा समारब्ध जयधवला टीका की पूर्ति शक संवत् 759 फाल्गुन शुक्ला दशमी को की। उस समय राजा अमोघवर्ष का शासनकाल था । धवला की पूर्ति और जयधवला की पूर्ति के बीच 21 वर्ष का समय पड़ता है। आचार्य वीरसेन के देहावसान की यह पूर्वापर सीमा है। जैन साहित्य एवं इतिहास के अन्वेष्टा स्व० पं० नाथूराम प्रेमी ने आचार्य वीरसेन का समय शक संवत् 665 से 745 तक माना है, जो अनेक पूर्वापर सन्दर्भों एवं प्रमाणों पर आधारित है । षट्खण्डागम : आधारः- द्वादशांग के अंतर्गत बारहवें अंग 'दृष्टिवाद' का चौथा भेद पूर्वगत है । वह चतुर्दश पूर्वों में विभक्त है। उनमें दूसरा 'आग्रायणीय पूर्व' है । उनके निम्नांकित चौदह अधिकार हैं :- 1. पूर्वान्त, 2 अपरान्त, 3. ध्रुव, 4. अध्रुव, 5. चयनलब्धि, 6. धर्मोपम, 7. प्रणिधिकल्प, 8. अर्थ, 9. भौम, 10. व्रतादिक, 11. सर्वार्थ, 12. कल्पनिर्याण, 13. अतीतसिद्धबद्ध तथा 14. अनागत । इसमें पाँचवाँ ‘चयनलब्धि अधिकार' बीस पाहुडों में विभक्त है। उनमें चौथा पाहुड़ 'कर्म प्रकृति’ है। उसके चौबीस ‘अनुयोगद्वार' हैं, जो इसप्रकार हैं: 1. कृति, 2. वेदना, 3. स्पर्श, 4. कर्म, 5. प्रकृति, 6. बन्धन, 7. निबन्धन, 8. प्रक्रम, 9. उपक्रम, 10. उदय, 11. मोक्ष, 12. संक्रम, 13. लेश्या, 14. लेश्या - कर्म, 15. लेश्या - परिणाम, 16. सातासात, 17. दीर्घ- ह्रस्व, 18. भंवधारणीय, 19. पुद्गलात्म, 20. निधत्तानिधत्त, 21. निकाचितानिकाचित, 22. कर्म-स्थिति, 23. पश्चिमस्कन्ध तथा 24. अल्पबहुत्व । इनके तथा इनके भेदोपभेदों के आधार पर षट्खण्डागम की रचना हुई । षट्खण्डागम : एक परिचय पहला खण्डः – छ: खण्डों में पहले खण्ड का शीर्षक जीवट्ठाण है। इसका अधिकांश भाग कर्मप्रकृति नामक पाहुड़ के 'बन्धन' संज्ञक छठे अनुयोगद्वार के बन्ध- विधान नामक प्राकृतविद्या+अक्तूबर-दिसम्बर 198 00 41

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