Book Title: Prakrit Vidya 1998 10
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 37
________________ में स्पष्ट लिखा है“जे जिणवयणे कुसला, भेदं जाणंति जीव-देहाणं ।” -(कत्तिगेयाणुवेक्खा, गा० 194) इसके टीकाकार इसे स्पष्ट करते हुए लिखते हैं "द्वादशांगरूप सिद्धान्ते कुशला दक्षा निपुणा: जिनाज्ञाप्रतिपालका वा जीवदेहयो-रात्मशरीरयोर्भेदं जानन्ति, जीव शरीरं भिन्नं पृथमूपमिति जानन्ति विदन्ति ।" अर्थ:-जो भव्यजीव द्वादशांगी जिनवाणी में निहित तत्त्वज्ञान में कुशल-दक्ष-निपुण होकर जिनेन्द्र परमात्मा की आज्ञा के प्रतिपालक होते हैं (उनकी आज्ञा पालते हैं), वे जीव और देह का अर्थात् आत्मा और शरीर का भेद जान लेते हैं। जीव और शरीर को भिन्न-पृथग् रूप जानते व अनुभव करते हैं। ये तथ्य इस महत्त्वपूर्ण तथ्य की ओर संकेत करते हैं कि सम्राट् खारवेल ने जिनवाणी के निरन्तर श्रवण-मनन-चिंतन से अपनी मानसिकता में घोर अन्तर पाया तथा उसने संसार, शरीर एवं भोगों से विमुख होकर देह और आत्मा के भेदविज्ञान को समझकर शरीर से भिन्न निर्मल आत्मतत्त्व की ओर उपयोग को एकाग्र कर निर्मलात्मानुभूति प्राप्त कर ली। यह सम्राट् खारवेल के जीवन का महान् आध्यात्मिक पक्ष है, जिसे संभवत: विचारकों ने अपनी विचारसरणि में स्थान नहीं दिया। आशा है वे इस विचारबिन्दु पर व्यापक चिंतनपूर्वक और अधिक गंभीर एवं महनीय निष्कर्षों का प्रतिपादन करेंगे। * तीर्थंकरों के शरीर के वर्ण णमिदूण जिणवरिंदे, तिहुयण वर णाण-दसण-पदीवे । कंचण-पियंगु-विद्रुम घण कुंद-मुणाल-वण्णाणं।। - (आचार्य कुन्दकुन्द, मूलाचार 8-1) अर्थ:-इस गाथा में चतुर्विंशति तीर्थंकरों के शरीर के वर्ण बताते हुए उन्हें नमस्कार किया गया है। -मैं जिनेन्द्रदेवों को नमस्कार करता हूँ, जो अपने अनन्तज्ञान और अनन्तदर्शन के द्वारा तीनों लोकों को प्रकाशित करने के लिये दीपक के समान हैं। तथा जो कंचन (तप्त स्वर्ण), प्रियंगु और विद्रुम (लाल वर्ण), कुन्द (श्वेत), मृणाल हरित वर्ण और धन (नीलवर्ण) वर्ण वाले हैं। विशेषार्थ:-चन्द्रप्रभ और पुष्पदन्त कुन्दपुष्प, चन्द्र, बर्फ एवं हीरा-मुक्ताहार के समान श्वेतवर्णवाले हैं। सुपार्श्वनाथ और पार्श्वनाथ मंजरी, मेंहदी के पत्तों अथवा बिना पके धान्य के पौधों के समान हरितवर्णवाले हैं, मुनिसुव्रतनाथ एवं नेमिनाथ नीलांजन गिरि के समान अथवा मयूरकंठ के समान नीलवर्णवाले हैं, पद्मप्रभ और वासुपूज्य प्रियंगु अथवा पलाश के पुष्प के समान लालवर्णवाले हैं। शेष 16 तीर्थंकर तपाये हुए स्वर्ण के समान सुनहरी वर्णवाले हैं। प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर'98 0035

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