Book Title: Prakrit Vidya 1998 10
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 36
________________ खारवेलश्री' के रूप में स्थापित कराया, वहीं उसे अध्यात्मदृष्टि भी प्रदान की । इस तथ्य के पोषक कतिपय विचारबिन्दु यहाँ प्रस्तुत हैं । प्रथम तो जब सम्राट् खारवेल कलिंग जिन की प्रतिष्ठा एवं कल्पद्रुम महापूजा-उत्सव को धूमधाम से सम्पन्न कर गौरवान्वित था, तो उक्त रानी सिंधुला ने उसे कहा कि “जिनप्रतिमा तो प्रतिष्ठित करा ली तथा उसका पूजा - महोत्सव भी शानदान ढंग से कर लिया; किन्तु जो जिनवाणी आज लुप्तप्राय: है, श्रुत-परम्परा विच्छिन्न होती जा रही है; - इसके बारे में भी कुछ सोचा है? " तब खारवेलश्री ने पूछा कि "तुम्हीं बताओ, क्या किया जाये?” तब रानी सिंधुला ने कहा कि “वर्तमान में जितने भी श्रमणसंघ एवं मुनिगण हैं, उन सबका एक महासम्मेलन बुलवाया जाये । तथा एक विशाल वाचना के माध्यम से विस्मृति के द्वारा विच्छिन्न होती श्रुत - सम्पदा की रक्षा की जाये।” अपनी विदुषी रानी की बात मानकर सम्राट् खारवेल ने लाखों स्वर्णमुद्रायें खर्च करके एक विशाल 'संगीतिमण्डप' का निर्माण कराया, जिसके लिए देश के कोने-कोने से प्रस्तरशिलायें स्तम्भों के निर्माणार्थ मंगवायीं गयीं थी। समस्त संघों में निमंत्रण एवं अनुरोध पत्र इस संगीति में पधारने के निमित्त भेजे गये । उच्च श्रेणी के अधिकारी एवं मंत्रीगण स्वयं इन पत्रों को लेकर श्रमणसंघों में गये और इसप्रकार एक भव्य संगीति का आयोजन हुआ, जिसमें सम्राट् चन्द्रगुप्त मौर्य के काल (अंतिम श्रुतकेवली आचार्य भद्रबाहु के काल) के बाद विच्छिन्न हुये द्वादशांगी श्रुत के अवशिष्ट अंश को चार अनुयोगों (प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग एवं द्रव्यानुयोग) के रूप में व्यवस्थित किया गया। इस बात को सम्राट् खारवेल के हाथीगुम्फा अभिलेख में इस पंक्ति के द्वारा दर्शाया गया है— “मुरियकालवोच्छिन्नं च चोयठि -अंगसंतिकं तुरिंय उपादयति । ” - इस पंक्ति में ‘मुरियकालवोच्छिन्नं' पद से 'मौर्यकाल बाद' अर्थात् 'श्रुतकेवली आचार्य भद्रबाहु स्वामी के बाद', 'चोयठि' पर से चार + आठ = बारह अंग यानि द्वादशांगी जिनवाणी तथा ‘तुरियं’ पद से ‘चार’ यानि 'चार अनुयोग' • यह अर्थ विद्वानों ने निकाला है। तथा जब सम्राट् खारवेल ने स्वयं साक्षात् उपस्थित रहकर महीनों तक उस 'श्रमणसंगीति' में जैन तत्त्वज्ञान का श्रवण-मनन-चिंतन एवं ऊहापोह किया होगा, तो निश्चय ही उसके हृदय में संसार से विरक्ति एवं आत्मसाधना के प्रति महिमा का भाव जागृत हुआ होगा। तब उसने नित्यपूजा-पाठ, उपवास आदि की जैन श्रावकचर्या को अपने जीवन के अंग के रूप अंगीकार किया तथा तत्त्वज्ञान का सूक्ष्म चिंतन करते हुये शरीर और आत्म का भेदविज्ञान करके निर्मलात्मानुभूति प्राप्त की । — यह तथ्य हाथीगुम्फा अभिलेख की निम्नलिखित पंक्ति से सुस्पष्ट है:" पूजानुरत- उवासँग - खारवेलसिरिना जीव - देह - सिरिका परिखिता । ” वस्तुतः जिनवाणी के स्वाध्याय का यही सुफल है। स्वामी कार्तिकेय ने भी इस बारे 00 34 प्राकृतविद्या + अक्तूबर-दिसम्बर 198

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