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सांस्कृतिक साक्ष्यों की जो पूर्णत: उपेक्षा की गयी है; उससे स्पष्ट है कि डॉ० सागरमल जी की दृष्टि कितनी सीमित है। क्योंकि इन साक्ष्यों में दिगम्बर जैन संस्कृति के ही प्रमाण हैं। साथ ही वैदिकों, बौद्धों आदि के साहित्य में उपपलब्ध तथ्यों की चर्चा न करना भी सिद्ध करता है कि इन्हें भय था कि यदि वे इन्हें प्रस्तुत करेंगे, तो श्वेताम्बरत्व का नाम-निशान भी सिद्ध नहीं कर पायेंगे, प्रामाणिकता तो बहुत दूर की बात है। जो कुछ सूचनात्मक प्रमाण इस पुस्तक में हैं, वे सभी इनसे पहिले कई विद्वान् निष्पक्षरीति से प्रस्तुत कर चुके थे। डॉ० सागरमल जी को श्रेय तो इसमें मात्र इतना ही है कि उन्होंने उनकी तोड़ मरोड़कर पूर्वाग्रही रीति से आधी-अधूरी, प्रस्तुति की है। इससे मात्र भ्रम ही हो सकता था, जो विद्वान् एवं जिज्ञासु इस स्पष्टीकरण के बाद दूर कर लेंगे। **
यूनान एवं अन्य देशों में दिगम्बर मुनि __ यूनानी इतिहास से पता चलता है कि ईसा से कम से कम चार सौ वर्ष पूर्व ये दिगम्बर भारतीय तत्त्ववेत्ता पश्चिमी एशिया में पहुंच चुके थे।
पोप के पुस्तकालय के एक लातीनी आलेख से, जिसका हाल में अनुवाद हुआ हैं, पता चलता है कि ईसा की जन्म की शताब्दी तक इन दिगम्बर भारतीय दार्शनिकों की बहुत बड़ी संख्या इथियोपिया (अफ्रीका) के वनों में रहती थी और अनेक यूनानी विद्वान वहीं जाकर उनके दर्शन करते थे और उनसे शिक्षा लेते थे। __ यूनान के दर्शन और अध्यात्म पर इन दिगम्बर महात्माओं का इतना गहरा प्रभाव पड़ा कि चौथी सदी ई. पू. में प्रसिद्ध यूनानी विद्वान पिरो ने भारत आकर उनके ग्रंथों और | सिद्धांतो का यानी भारतीय अध्यात्म और भारतीय दर्शन का विशेष अध्ययन किया और फिर यूनान लौटकर एलिस नगर में एक नई यूनानी दर्शन पद्धति की स्थापना की। इस नई पद्धति का मुख्य सिद्धांत था कि इंद्रियों द्वारा वास्तविक ज्ञान की प्राप्ति असंभव है, वास्तविक ज्ञान की प्राप्ति केवल अंत:करण की शुद्धि द्वारा ही संभव है और उसके लिए मनुष्य को सरल से सरल जीवन व्यतीत करके आत्मसंयम और योग द्वारा अपने अंतर में धंसना चाहिए। भारत से लौटने के बाद पिरो दिगम्बर रहता था। उसका जीवन इतना सरल और संयमी था कि यूनान के लोग उसे बड़ी भक्ति की दृष्टि से देखते थे। वह योगाभ्यास करता था और निर्विकल्प समाधि में विश्वास रखता था।
-(भारत और मानव संस्कृति, खण्ड-II, पृ.-128 ले. बिशम्भरनाथ पांडे) __ प्रकाशक सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय, भारत सरकार, नई दिल्ली
पुस्तक-रत्न पुस्तक का मूल्य रत्नों से भी अधिक है, क्योंकि रत्न बाहरी चमक-दमक दिखाते हैं, जबकि पुस्तकें अन्त:करण को उज्ज्वल करती हैं।
-महात्मा गाँधी **
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प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर'98