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उपर्युक्त विवरण महाकवि रइधूकृत 'भद्रबाहुचरित' पर आधारित है। अन्य अनेकों विद्वानों, इतिहासविदों एवं शोधकर्ताओं ने भी नाना तथ्यों के आधार पर इस विवरण की पुष्टि की है।
चूँकि श्वेताम्बर सम्प्रदाय का अभ्युदय भले ही अंतिम श्रुतकेवली भद्रबाहु स्वामी के समय पड़े बारह वर्ष के भयंकर दुर्भिक्ष के कारण ई०पू० तृतीय-चतुर्थ शताब्दी में हो गया था; किन्तु उनके शिथिलाचार एवं साहित्य-विहीनता के कारण पाँचवीं शताब्दी ईस्वी तक इन्हें कोई मान्यता नहीं मिल सकी। किसी भी विचारधारा या परम्परा को मान्यता तभी मिलती है, जब इतरलोग भी अपने साहित्य में पूर्वपक्ष आदि के रूप में उसका उल्लेख करें। किन्तु किसी भी जैनेतर दर्शन के किसी प्रसिद्ध विद्वान् ने किसी प्रामाणिक, प्रतिष्ठित ग्रन्थ में इनका एवं इनकी विचारधारा का खंडन या मंडन किसी भी रूप में कोई उल्लेख नहीं किया है। जबकि प्राचीनतम काल से सभी ग्रन्थों में दिगम्बर जैन निर्ग्रन्थ सम्प्रदाय का उल्लेख हर कहीं मिलता रहा है। जैनों के चौबीसों के चौबीस तीर्थंकर इसी दिगम्बर-परम्परा के थे ऐसा स्पष्ट कथन बौद्ध दार्शनिक आचार्य धर्मकीर्ति ने 'न्यायबिन्दु' नामक प्रकरण के तृतीय परिच्छेद में किया है
"ऋषभो वर्धमानश्च तावादी यस्य स ऋषभवर्द्धमानादिदिगम्बराणां शास्ता सर्वज्ञ: आप्तश्चेति" – (पृष्ठ 138)
इसीप्रकार वैदिक संस्कृति के ग्रन्थों में भी जैनों के नाम पर दिगम्बरत्व का ही उल्लेख मिलता है—“यथाजातरूपधरो निर्ग्रन्था: निष्परिग्रहा:।" – (तैत्तिरीय उपनिषद्, 10/16)
“यथाजातरूपधरो निर्ग्रन्थः।" – (जाबालोपनिषद्, पृष्ठ 130)
जैनसाधुओं के लिए जो श्रमण, क्षपणक, मुण्डी एवं निर्ग्रन्थ आदि शब्दों का प्रयोग मिलता है; वे सभी दिगम्बरत्व के पर्याय माने गये हैं। देखें
"दिगम्बर: स्यात्क्षपणे नग्ने।" -मिदिनीकोश, 267) "नग्नारो दिवासा क्षपण: श्रमणश्च जीविको जैन: ।” – (हलायुधकोश् पृष्ठ 120) "मुण्डी नग्नो मयूराणां पिच्छधरो द्विजः।" – (स्कन्धपुराण, 59/36) "योगी दिगम्बरो मुण्डो बर्हिपिच्छधरो द्विजः।" – (वैदिक पद्मपुराण, 13/33) "ततो दिगम्बरो मुण्डो बर्हिपिच्छधरो द्विजः।" – (विष्णुपुराण, 3/18) “अपरे वेदबाह्या: दिगम्बराः।" – (ब्रह्मसूत्र, विज्ञानामृतभाष्य, 2/2/33) "जलिलो मुण्डी लुंचितकेश:।" – (शंकराचार्य)
“यथा लोके 'इह मुण्डो भव -इह नग्नो भव' इति।" – (पातंजल महाभाष्य, 1/1/ 2, खंड 1, पृ० 93)
"नागवीं लुचित मुण्डे।" – (संत ज्ञानेश्वर, ज्ञानेश्वरी 13/21) “निरावण इति दिगम्बर।" – (न्यायकुसुमांजलि, 1/1)
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प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर'98