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यापनीयः एक विचारणीय बिन्दु
-डॉ० सुदीप जैन अभी डॉ० सागरमल जैन द्वारा लिखित एवं पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी द्वारा प्रकाशित 'जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय' नामक पुस्तक हस्तगत हुई। ___ धर्मानुरागी मित्र डॉ० अनुपम जैन, इन्दौर (म०प्र०) के द्वारा प्रेषित इस पुस्तक के बारे में विद्वद्वर्य पं० नाथूलाल जी शास्त्री संहितासूरि, इन्दौरवालों ने अपने पत्र में जिक्र किया था। अत: मुझे जिज्ञासा तो थी ही, प्रतीक्षा भी थी। आते ही दो बार आद्योपान्त भली-भाँति पढ़ गया। अध्ययन से स्पष्ट हो गया कि विद्वान् लेखक ने सम्पूर्ण कार्य मात्र अपने पूर्वाग्रहों की पुष्टि के लिये किया है तथा तथ्यों को भरपूर तोड़-मरोड़कर आधेअधूरे ढंग से प्रस्तुत किया है। उनके लिए ऐसी प्रवृत्ति नई नहीं है। श्वेताम्बरत्व को मूल व प्राचीन सिद्ध करने के लिए वे अनेकों ऐसी असफल चेष्टायें पहिले भी कर चुके हैं। सच कहा जाये, तो उनकी प्रसिद्धि ही ऐसे कार्यों के लिए रही है। __आदरणीय लेखक विद्वान् एवं अन्य जिज्ञासु विद्वानों के विचारार्थ मैं कतिपय बिन्दु प्रस्तुत करना चाहता हूँ। प्रथम तो यह कि यापनीय संघ की उत्पत्ति जक्खिल रानी के द्वारा हुई। इसका संक्षिप्त परिचय निम्नानुसार हैं___ लगभग 200 ई०पू० में आचार्य विशाखनन्दि के समय में सौराष्ट्र प्रान्त के वलभीपुर राज्य की रानी 'स्वामिनी' की पुत्री 'जक्खिल' का विवाह करहाटपुर के राजा के साथ हुआ था। चूँकि उसकी माँ 'स्वामिनी' श्वेताम्बर मतानुयायिनी थी, अत: उसकी पुत्री 'जक्खिल' पर भी वही संस्कार थे।
एक बार रानी जक्खिल को सूचना मिली कि कुछ श्वेताम्बर गुरु करहाटपुर पधारने वाले हैं, तो उसने अपने पति से उनके स्वागतार्थ नगरसीमा पर चलने का अनुरोध किया। अपनी रानी के आग्रह पर राजा करहाटपुर की सीमा पर उन गुरुओं के स्वागतार्थ रानी-सहित पहुँचा। वहाँ पर उसने वस्त्र, कम्बल एवं दण्ड लिये श्वेताम्बर गुरुओं को आते देखा, तो उसने कहा कि "प्रिये ! जैन गुरु तो तपस्वी और अपरिग्रही होते हैं; ये न तो तपस्वी दिखाई देते हैं, और परिग्रह तो स्पष्ट ही लिये हुए हैं; अत: इन्हें मैं अपने राज्य में अपरिग्रही जैनगुरु के रूप में प्रविष्ट होने की अनुमति देने में असमर्थ हूँ।" - इतना कहकर राजा राजमहल में वापस चला गया। तब रानी जक्खिल ने उन श्वेताम्बर गुरुओं से निर्ग्रन्थ होने का निवेदन किया। उन श्वेताम्बर गुरुओं ने उस रानी जक्खिल का अनुरोध स्वीकार करके बाह्य निर्ग्रन्थपना तो अंगीकार कर लिया, किन्तु अंतरंग संस्कार उनके श्वेताम्बरत्व के बने रहे। उन्हीं साधुओं के संघ को 'जावालिय' अथवा 'यापनीय' संज्ञा दी गयी।
प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर'98
र'98
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