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'सेवन ग्रामर्स ऑफ दी डाइलेक्टर्स' में लिखी है। प्राचीन भारत में 'शौरसेनी' और 'मागधी' दो ही भाषायें थीं। वर्तमान में श्वेताम्बर आगम-साहित्य में जो ग्रंथ 'अर्द्धमागधी' के उपलब्ध है, वह 'अर्द्धमागधी तीर्थंकर महावीर की दिव्यध्वनि की भाषा नहीं है। इसका रूप तो चौथी- पाँचवी शताब्दी में गठित हुआ है। दिव्यध्वनि का भाषात्मकरूप आर्य-अनार्य आदि वर्ग की विभिन्न भाषाओं द्वारा ग्रथित होता है। आचार्यों ने अठारह महाभाषाओं एवं सात सौ लघुभाषाओं का मिश्रण इसमें माना है। भाषा का यह रूप सभी स्तर के प्राणियों को बोध्य है। -(तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा; डॉ० नेमीचन्द शास्त्री, आरा, प्रथम भाग, पृ० 2401)
उक्त प्रमाणों से इस लेख से पाठकों को होने वाली अपनी चिंता दूर कर देना चाहिये। नाम की समानता से वर्तमान 'अर्द्धमागधी' तीर्थंकरों के उपदेश की भाषा नहीं हो सकती।
प्रबुद्ध पाठक जानते ही हैं कि परमपूज्य आचार्यश्री विद्यानन्द जी मुनिराज के शुभाशीर्वाद से शौरसेनी प्राकृत की प्राचीनता, प्राकृत में उसकी प्रमुखता, व्याकरण की रचना एवं नई दिल्ली श्री लालबहादुर शास्त्री राष्ट्रिय संस्कृत विद्यापीठ में मानित विश्वविद्यालय में उसकी पाठ्य-पुस्तकों में स्वीकृति और स्वतंत्ररूप से वहाँ कार्य प्रारंभ यह सब दिगम्बर जैनाचार्यों की रचनाओं के महत्त्व को प्रतिपादित करता है। नौ वर्ष से इस शोध संस्थान, प्राकृत भवन दिल्ली से 'प्राकृतविद्या' नामक शोध पत्रिका भी प्रकाशित हो रही है।
विशेष यह है कि मागधी, अपभ्रंश आदि प्राकृत भाषाओं की प्रकृति' शौरसेनी ही है। यह सब आचार्य हेमचन्द्र-कृत 'प्राकृत व्याकरण' से ज्ञात होता है। 'भरत नाट्यशास्त्र' 17/34, पृ0 273 में शौरसेनी को सभी श्रेष्ठ पुरुषों के द्वारा काव्य आदि साहित्यिक रचना में प्रयोग किया जाना चाहिये, -यह प्रेरणा दी गई है। यह सब आचार्यश्री की खोज का परिणाम है।
दिव्यध्वनि दिव्य-अर्थों की वनबकी है 'दिव्यध्वनिर्भवति ते विशदार्थसर्वभाषास्वभावपरिणामगुणैप्रयोज्याः' - (भक्तामरस्तोत्र, 35)
'दिव्यमहाध्वनि निरस्य मुखाब्जान्मेथ।' – (महापुराण, 23/69)
'सयोगकेवलिदिव्यध्वनेः कथं सत्यानुभयवाग्योगत्वमितिचेत्तन्न तदुत्पत्तावनक्षरात्मकत्वेन श्रोतृश्रोत्रप्रदेश-प्राप्तिसमयपर्यंतमनुभयभाषात्वसिद्धेः ।' – (गोम्मटसार जीवकाण्ड, 1/227)
अर्थ:—इहाँ प्रश्न उपजै है कि केवलीके दिव्यध्वनि है, ताकै सत्यवचनपनां वा अनुभय वचनपना कैसे सिद्धि हो है? ताका समाधान केवलिकै दिव्यध्वनि हो है, सो होते ही तौ
अनक्षर हो है; सो सुनने वालों के कर्णप्रदशेकौं यावत् प्राप्त न होई तावत् कालपर्यंत | अनुभय-भाषात्मक अनक्षर ही है।
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प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर'98