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बहुश्रुत एवं अध्ययनशील है। इसमें पृष्ठ 41 पर लिखा है कि “दिगम्बर परम्परा के आगम को 'शौरसेनी जैनागम' और श्वेताम्बर परम्परा के आगम को 'अर्द्धमागधी' जैनागम नाम हाल ही में कुछ विद्वानों ने दिया है । पर दिगम्बर जैन आम्नाय के विषय में अनर्थकारी प्रभाव करनेवाला है। वास्तव में आगम की भाषा को 'आर्षप्राकृत' अर्थात् 'मुनियों की प्राकृतभाषा' कहकर पुकारा जाता था। महावीर स्वामी के उपदेश की भाषा अर्द्धमागध (प्राकृत) भाषा थी । दिगम्बर और श्वेताम्बर - दोनों पंथवालों ने यह नाम दिया है।”
इस उल्लेख से भ्रम होता है कि मानो लेखक मान रहे हैं कि भगवान् का 'अर्द्धमागधी' में उपदेश हुआ और उसी 'अर्द्धमागधी' में श्वेताम्बर - ग्रंथों का निर्माण हुआ; अत: उनका महत्त्व विशेष है और दिगम्बर - ग्रंथ उससे भिन्न शौरसेनी भाषा में रचे गये; अत: उनका वैसा महत्त्व नहीं रहा। यही इस लेख से अनर्थकारी प्रभाव हो सकता है। इसके अतिरिक्त प्रामाणिकता - अप्रामाणिकता में भी अनर्थ माना जा सकता है। यह लेखक द्वारा चिंता प्रकट करने की भाषा है, आक्षेप की नहीं ।
तीर्थंकर दिव्यध्वनि की भाषा के संबंध में हमने इस लेख के प्रारंभ में स्पष्टीकरण दे दिया है कि 'दिव्यध्वनि सर्वभाषात्मक' है। 'अर्द्धमागधी' नामकरण भी मागध देव के कारण है और मगधदेश का भी संबंध होकर उसके साथ अन्य भाषाओं का मिश्रण है । “सर्वार्धमागधी सर्वभाषासु परिणामिनीम् । सर्वेषां सर्वतो वाचं सार्वज्ञीं प्रणिददमहे । । " — (वाग्भट - काव्यानुशासन, पृष्ठ 2 ) अर्द्धमागधी सर्वभाषाओं के रूप में परिणत होने वाली होने से सबकी भाषा थी, जो सर्वज्ञ के उपदेश की भाषा थी। जिनसेन आचार्य ने भी इसे सर्वभाषात्मक कहा है। 'अर्द्धमागधी' अठारह देशीभाषारूप थी केवल महावीर तीर्थंकर की नहीं, सभी तीर्थंकरों की वाणी थी
“दश अष्ट महाभाषा समेत, लघुभाषा सात- शतक सुचेत । सो स्याद्वादमय सप्तभंग, गणधर गूँथे बारह सु अंग । । "
इसप्रकार भगवान् महावीर के उपदेश को लेकर जो 'अर्द्धमागधी' से विद्वान् लेखक ने दिगम्बरों के लिए अनर्थकारी प्रभाव बताया है, वह सिद्ध नहीं होता । 'धवला' 1/284 में लिखा है कि केवली के वचन इसी भाषारूप ही है, ऐसा निर्देश नहीं किया जा सकता। क्रम-विशिष्ट वर्णात्मक अनेक पंक्तियों के समुच्चयरूप और सर्वश्रोताओं में प्रवृत्त होनेवाली ऐसी केवली की ध्वनि सम्पूर्ण भाषारूप होती है - ऐसा मान लेने में कोई विरोध नहीं आता है। 'भारतीय संस्कृति में जैनधर्म का इतिहास' ग्रंथ (डॉ० हीरालाल जी) पृष्ठ 51 में महावीर स्वामी से पूर्व का इतिहास बताते हुए लेखक ने लिखा है कि 'द्रव्यश्रुत अर्थात् शब्दात्मकता की दृष्टि से महावीर से पूर्वकालीन कोई जैन साहित्य उपलब्ध नहीं है; किन्तु भावश्रुत की अपेक्षा जैन - श्रुतांगों के भीतर कुछ ऐसी रचनाएँ मानी गई हैं, जो
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प्राकृतविद्या + अक्तूबर-दिसम्बर 98