Book Title: Prakrit Vidya 1998 10
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 26
________________ लक्षणवाला धर्म भी वैसा ही है। उत्तमक्षमादि दशप्रकार के लक्षणवाला धर्म भी जीव के शुद्धभाव की अपेक्षा करता है। रत्नत्रय लक्षणवाला धर्म भी वैसा ही है। राग-द्वेष-मोह के अभावरूप लक्षणवाला धर्म भी जीव का शुद्ध स्वभाव ही बताता है। और वस्तुस्वभाव लक्षणवाला धर्म भी वैसा ही है। प्रश्न-पहले सूत्र में तो शुद्धोपयोग में सर्वगुण प्राप्त होते हैं, ऐसा बताया गया है। और यहाँ आत्मा के शुद्ध परिणाम को धर्म बताकर उसमें सर्वधर्मों की प्राप्ति कही गयी। इन दोनों में क्या विशेष है? ___ उत्तर—वहाँ शुद्धोपयोग संज्ञा मुख्य थी और यहाँ धर्मसंज्ञा'मुख्य है। इतना ही इन दोनों में विशेष है। तात्पर्य एक ही है। उक्त विवेचन के अनुसार धर्म की समस्त परिभाषायें, मोक्ष के समस्त साधन एवं समस्त मांगलिक अभ्युदयकारी अनुष्ठान एक शुद्धोपयोग में ही अन्तर्गर्भित हो जाते हैं। इसीलिए इस शुद्धोपयोग की प्राप्ति के बिना न तो श्रावकधर्म वस्तुत: गरिमा प्राप्त करता है और न ही मुनिधर्म । अत: 'श्रावक' हो या 'श्रमण', उन्हें शुद्धोपयोग की ओर विशेष लक्ष्य रखना चाहिये - यही वीतराग मार्ग है। श्रमणचर्या में तो हर अंतरमुहुर्त में शुद्धोपयोग की प्राप्ति यदि न हो, तो छठवें गुणस्थान से सातवें गुणस्थान में जा ही न सकें। तथा श्रमण तो छठवें-सातवें गुणस्थान में ही झूलते हैं। संदर्भग्रंथ-सूची 1. चारित्रसार, पृष्ठ 143। 2. मोक्षमार्ग प्रकाशक, 2/51 3. भगवती आराधना, पृष्ठ 4। 4. द्रव्यसंग्रह टीका, गाथा 55/225। 5. मूलाचार भाष्य, गाथा 891। 6. भगवती आराधना, 2911 7. भावसंग्रह, गाथा 2711 8. बोधिदुर्लभ भावना। 9. धवला, भाग 1, पृष्ठ 24। 10. आयरियभत्ति, गाथा 9। 11. पवयणसारो, गाथा 201 की टीका। 12. बारस अणुवैक्खा , गा० 42 एवं 64 । 13. ज्ञानार्णव, 3/341 14. परमप्पयासु (परमात्मप्रकाश), 2/67। 15. जोयसारु (योगसार), योगीन्द्रदेव, 651 16. द्रष्टव्य, परमात्मप्रकाश टीका, 2/68। 1024 प्राकृतविद्यार। अक्तूबर-दिसम्बर'98

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