Book Title: Prakrit Vidya 1998 10
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 24
________________ 'शुद्धोपयोग' है। इसी को समयसार' भी कहा गया है। यह श्रावकों एवं श्रमणों - दोनों के लिए उपादेय है। इसीलिए इसका प्रतिपादक ग्रंथ (समयसार) भी सभी के लिए उपयोगी है। श्रमण तो विशेषत: शुद्धात्मानुभूति-पारंगत होते हैं; अत: उनसे भी अधिक उसकी शिक्षा एवं प्रेरणा श्रावकों को अपेक्षिति होने से आचार्य कुन्दकुन्द ने विशेषत: शुद्धोपयोग की प्राप्ति में सहायक ग्रंथ 'समयसार' की रचना श्रावकों की मुख्यता से की है। शुद्धोपयोग-पारंगत श्रमणों को तो इसका स्वान्तःसुखाय उपादेयता है ही। इस तथ्य को आचार्य कुन्दकुन्द ने स्वयं 'समयसार' में संकेतित किया है "पासंडियलिंगाणि य गिहिलिंगाणि य बहुप्पयाराणि।" – (गाथा 408) “ण वि एस मोक्खमग्गो पासंडिय गिहिमयाणि लिंगाणि।" – (गाथा 410) "तम्हा जहित्तु लिंगे सागारणगारिये हि वा गहिदे।। दंसण-णाण-चरित्ते अप्पाणं मुंज मोक्खपहे ।।" – (गाथा 411) "पासंडियलिंगेसु व गिहिलिंगेसु व बहुप्पयारेसु। कुव्वंति जे ममत्तं तेहि ण णादं समयसारं ।।" – (गाथा 413) इन गाथासूत्रों में 'गृहस्थ' एवं 'सागार' का 'पासंडी' (साधु) एवं 'अनगार' पदों के साथ प्रयोग बताता है कि 'समयसार' की रचना के समय कुन्दकुन्द की दृष्टि में गृहस्थ और साधु —दोनों थे तथा उन्होंने बिना किसी भेदभाव के दोनों को गृहस्थपने एवं साधुपने के अहं से मुक्त कर समयसार' (शुद्धात्मतत्त्व) समझाया है। यह तथ्य गंभीरतापूर्वक मननीय है। ___ शुद्धात्मतत्त्व की प्राप्ति 'शुद्धोपयोग' की अवस्था में ही होती है तथा यही संवर-निर्जरा एवं मोक्ष का साधन है —ऐसा अनेकत्र बतलाया गया है "सुद्धेण लहदि सिद्धिं एवं लोयं विचिंतिज्जो।.... सुद्धवजोगेण पुणो धम्मं सुक्कं च होदि जीवस्स । तम्हा संवरहेद् झाणोत्ति विचिंतये णिच्चं ।।12 अर्थात् शुद्धोपयोग से ही जीव सिद्धिलोक को प्राप्त करता है—ऐसा चिंतन करना चाहिए। क्योंकि शुद्धोपयोग से ही जीव को धर्मध्यान और शुक्लध्यान की प्राप्ति होती है, अत: संवर के हेतुभूत इस शुद्धोपयोग का साधन नित्य करना चाहिये । शुद्धोपयोग का फल निरूपित करते हुए आचार्य शुभचन्द्र लिखते हैं "नि:शेष-क्लेश-निर्मुक्तं स्वभावजमनश्वरम् । फलं शुद्धोपयोगस्य ज्ञानराज्यस्य कारणम् ।।"" अर्थ:-जीवों को शुद्धोपयोग का फल समस्त दुःखों से रहित, स्वाभाविक, अविनाशी ज्ञान-साम्राज्य की प्राप्ति होता है। आचार्य योगीन्द्रदेव ने शुद्धोपयोग को ही सर्वसाधक होने से उसे सबमें प्रधान बताया 0022 प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर'98

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