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एकः शरणं शुद्धोपयोगः
-डॉ० सुदीप जैन आचार्य कुन्दकुन्द-प्रणीत ‘पवयणसारो' ग्रन्थ की टीका में जब आचार्य अमृतचन्द्र सूरि यह निर्देश देते हैं कि “एक: शरणं शुद्धोपयोग:"; तो यह वाक्य न केवल आध्यात्मिक चेतना का संवाहक बनता है, अपितु युगीन परिदृश्य को भी अत्यन्त विशदरूप में संकेतित कर देता है। वस्तुत: यह तो कुन्दकुन्दाचार्य के अभिप्राय की स्पष्ट व्याख्यामात्र है; अत: इससे स्पष्ट विदित होता है कि अंतिम श्रुतकेवली आचार्य भद्रबाहु के उपरान्त जब जैनसंघ प्राय: बिखर रहा था तथा जैनश्रमण केवल बाह्याचार में उलझकर रह गये थे; तब आचार्य कुन्दकुन्द ने 'समयसार' जैसे ग्रन्थों की रचना करके उनमें तथा सम्पूर्ण जिनधर्मानुयायियों में आध्यात्मिक चेतना का संचार किया। उन्होंने स्पष्टरूप से कहा कि केवल बाह्य क्रियाकाण्ड से आत्मा का कल्याण संभव नहीं है, अपितु शुद्धात्मानुभूति ही वास्तविक मोक्षमार्ग है।
वस्तुत: यही उनका सच्चा' आचार्यत्व' था। ‘चारित्रसार' में आचार्य का स्वरूप स्पष्ट करते हुये लिखा है- "भव्या आत्महितार्थमाचरन्ति यस्मात स आचार्य:।
अर्थ:-जो भव्यजीवों को आत्महित के लिए सन्मार्ग पर आचरण कराते हैं, वे 'आचार्य' हैं। ___ यह उनका बाह्य-स्वरूप है; उनका अन्तरंग-स्वरूप बताते हुये पंडितप्रवर टोडरमल जी लिखते हैं—“बहुरि जे मुख्यपनें तो निर्विकल्प स्वरूपाचरणविर्षे ही निमग्न हैं.....।" ऐसे आचार्यों को 'भगवती आराधना' की टीका में ‘एकदेशसिद्ध' कहा गया है
“आचार्यादयोऽपि किन्नोपात्तास्तेषामप्येकदेशसिद्धास्ति। अर्थ:—आचार्य आदि का ग्रहण क्यों नहीं किया? क्योंकि वे (आचार्यादि) एकदेशसिद्ध' हैं।
वस्तुत: 'शुद्धात्मा' को जानना ही समय' अर्थात् द्वादशांगी जिनवाणी या सम्पूर्ण शास्त्रों का 'सार' है। इसीलिए शुद्धात्मा को जानने वाले उपयोग अर्थात् 'शुद्धोपयोग' को भी 'समयसार'" संज्ञा आचार्यों ने दी है। आचार्य वसुनन्दि लिखते हैं--
___ "समयसारं द्वादशांग-चतुर्दशपूर्वाणां सारं परमतत्त्वम्" अर्थ:-‘समयसार' ही परमतत्त्व है, वह बारह अंगों और चौदह पूर्वो का 'सार' है।
सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप निश्चयरत्नत्रयात्मक मोक्षमार्ग को भी 'समयसार' कहा गया है, तथा उसमें जो जीव को स्थापित करने में समर्थ होता है, वही 'आचार्य' कहा गया है- “णाणम्मि दंसणम्मि य चरणम्मि च तीसु समयसारेसु।
सक्केदि जो ठवे, गणमथाणं गणधरो सो।।"" अर्थ:-जो स्वयं को तथा साधुसंघ को सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र में तथा इन तीनों
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प्राकृतविद्या+ अक्तूबर-दिसम्बर'98