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गृहस्थों को भी धर्मोपदेश का अधिकार
-स्व० पं० माणिकचंद्र कौन्देय, न्यायाचार्य गृहस्थ पण्डित भी उपदेश दे सकते हैं। सबका स्रोत सर्वज्ञोक्त से है। उद्भट आचार्यों के बनाये हुये समयसार, कषायप्राभृत, तत्त्वार्थसूत्र, गोम्मटसार, राजवार्तिक आदि महान् ग्रन्थ हैं ही, इनकी यानी धनंजयकवि, विद्वद्वर्य आशाधरजी, टोडरमलजी आदि के बनाये गये द्विसंधान-काव्य, विषापहार स्तोत्र, धर्मामृत, प्रतिष्ठापाठ, मोक्षमार्गप्रकाशक आदि ग्रन्थ भी श्लाघनीय हो रहे हैं। पंचाध्यायी, चारित्रसार, चर्चा-समाधान, चर्चा-शतक, धर्म-प्रश्नोत्तर, मेधावी श्रावकाचार, ज्ञानानन्द श्रावकाचार, दो क्रियाकोश को भी गृहस्थों ने रचा है। जयपुर के विद्वानों ने गोम्मटसार, त्रिलोकसार, सर्वार्थसिद्धि, प्रमेरत्नमाला आदि की प्रामाणिक भाषा-टीकायें लिखी हैं। मुझ छोटे-से गृहस्थ ने भी 'श्लोकवार्तिक' नामक न्यायसिद्धान्त ग्रन्थ की एक लाख तीस हजार श्लोक प्रमाण भाषाटीका लिखी है। श्री देव-शास्त्र-गुरु के प्रसाद से यह शुभोपयोग का कार्य पन्द्रह वर्षों में सम्पन्न हुआ है। ___ तथा अन्य विद्वानों, यथा-पण्डित बनारसीदास जी, भूधरदासजी, द्यानतराय जी, भागचन्द्र जी प्रभृति श्रावक-विद्वानों के बनाये हुये पुराण, भाषापाठ, पूजन, पद्य, विनतियों का संग्रह आदरणीय हो रहे हैं। अविरतसम्यग्दृष्टि व्यवहार-श्रावक श्रेणिक जी का तो एक चरित्र-ग्रन्थ ही शास्त्रगद्दी पर पढ़ा जाता है। ऐसे सीताचरित्र, रविव्रतकथा, सुगन्धदशमीव्रत-कथायें भी शास्त्र-सभा में वांची जाती हैं। कषायभाव मन्द होय, विशुद्ध-प्रतिभा होय, जिनशासन-प्रभावना का उत्कट-भाव हो; तो संस्कृत, प्राकृत, देशभाषा के ग्रंथों को कोई भी मूल या टीका, स्तुति आदि रूप से लिख सकता है। ऐसे कार्य में लौकिक आराम और तन-धन की चिन्तायें छोड़नी पड़ती हैं। ___ महापण्डित गोपालदास जी बरैया, त्यागी, (पू० आचार्य शांतिसागर दीक्षित) मुनि कुन्थुसागर जी, उदासीन दुलीचन्द्र जी आदि की लेखावलि जैन-जनता के स्वाध्याय में आ रही हैं। सबका साक्षात् परम्परा-सम्बन्ध श्री महावीर भगवान् से है। जैसे कि बिजली की छोटी सी बत्ती कहीं चमक रही होय, उसका सम्बन्ध बड़े बिजलीघर (पावर हाउस) से है ;इसीप्रकार भले ही मध्य में कई लपेट, वेशभूषा पहिन लिये जायें; तद्वत् उक्त प्रमेयों का सम्बन्ध वीरोद्भव द्वादशांग वाणी से जुड़ा रहा है। अप्रामाणिक वाक्यावलि की चर्चा पृथक् है, सर्वत्र आभास पाये जाते हैं। ___ आज भी अनेक गृहस्थ पण्डित उपदेश देते हैं; सभा में कतिपय मुनि, ऐलक, क्षुल्लक, व्रती, त्यागी उदासी श्रावक समझदार श्रोता उपयोग लगाकर सविनय जिनवाणी को सुनते हैं। बाहर वेष के बिना भी अनेक आत्माओं में पवित्रत्व घुस रहा है, जैसे कि सातवें नरक में आठ अन्तर्मुहूर्त तेंतीस सागर तक सम्यग्दर्शन चमकता रह सकता है तथा द्रव्यलिंगी या
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प्राकृतविद्या+अक्तूबर-दिसम्बर'98