Book Title: Prakrit Vidya 1998 10
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 19
________________ चाहिये। इसमें आगत सव्व' पद की 'साहूणं' पद के साथ विशेष सार्थकता प्रमाणित करने के लिए 'मूलाराधना' में लिखा है “णिव्वाणसाहगे जोगे सदा जुंजंति साहवो। समा सब्वेसु भूदेसु तम्हा ते सव्वसाहवो।।" – (गाथा 512) अर्थ:-निर्वाण (मोक्ष) के साधनाभूत मूलगुणों आदि में सर्वकाल अपने आत्मा को जोड़ते हैं और सभी जीवों में समभाव को प्राप्त होते हैं, इसलिए वे ‘सर्वसाधु' (सव्वसाहू) कहलाते हैं। समता ही आनन्द की क्रीडास्थली है 'समामृतानन्दभरेण पीडिते, भवन्मन: कुड्मलके स्फुटयत्यति । विगाह्य लीलामुदियाय केवलं, स्फटैक विश्वोदरदीपकार्चिषः ।।' -(आचार्य अमृतचन्द्र, लघुतत्त्वस्फोट, 11, पृष्ठ 51) अर्थ:-(समतामृतभरेण) समतारूपी अमृतजन्य आनंद के भार से (पीडिते) पीडित-युक्त (भवन्मन- कुड्मलके स्फुटयत्यति) आपके मनरूपी कुड्मल-कलीके सर्वथा विकसित हो जाने पर (लीलां विगाह्य) अनन्त आनंद की क्रीडा में प्रवेश करके (स्फुटैक विश्वोदर-दीपकार्चिष: केवलं उदियाय) समस्त विश्व के उदर को स्फुट रूप से प्रकट करनेवाले दीपक की ज्योतिस्वरूप को आपको केवलज्ञान प्रकट हुआ। ____तात्पर्य उसका यही है कि जब समतारूपी अमृत का आनंद आपकी आत्मा में भर गया तब समस्त विश्व को प्रकाशित करनेवाला केवलज्ञान आपको प्राप्त हुआ यही आपकी लीला-क्रीडा (धर्मक्रीडा) है। वक्ता के गुण 'नानोपाख्यानकुशलो नानाभाषाविशारदः, नाना शास्त्रकलामिज्ञ:स भवेत् कथकाग्रणी। नांगुली-भंजनं कुर्यान्न ध्रुवौ नर्तयेद् ब्रुवन्, नाधिक्षिपेन च हसेन्नात्युच्चैर्न शनैर्वदत् ।।' -(महापुराण, प्रथम 130/31) अर्थ:-जो नाना प्रकार के उदाहरण द्वारा वस्तुस्वरूप कहने में कुशल है, प्राकृत संस्कृत, अपभ्रंश, अपभ्रंश, प्रादेशिक, हिन्दी आदि भाषाओं में विशारद है एवं अनेक शास्त्र तथा कलाओं में अभिज्ञ है, वह प्रवक्ताओं में अग्रणी होता है। वक्ता को अंगुलियाँ नहीं बजानी चाहिए, बोलते समय भौंहों को नहीं नचाना चाहिए, किसी पर आक्षेप नहीं करना चाहिए, हँसना नहीं चाहिए तथा अति ऊँचा अथवा अति नीचा (धीरे) नहीं बोलना चाहिए। ** प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर'98 0017

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