Book Title: Prakrit Vidya 1998 10
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 17
________________ तिनका लिये है (लोक में दाँतों में तिनका लेकर आना अहिंसकरूप से शरणागत होने का प्रतीक माना जाता है।)-ऐसी हरिणियों का भी घात करने में जब हिंसक लोग नहीं चूकते हैं, तो फिर दूसरे (सापराध) प्राणियों के विषय में क्या कहा जा सकता है? आज आवश्यकता है कि हम शास्त्र को एवं लोक को दोनों को जानकर अपने पद की मर्यादा के अनुकूल आचरण करें; ताकि धर्म की प्रभावना तो हो, किन्तु किसी भी रूप में वाद-विवाद आदि के निमित्त हम न बनें। ततः किम्? दत्तं पदं शिरसि विद्विषतां तत: किम्? जाता: श्रिय: सकलकामदुधास्तत: किम्? सन्तर्पिता: प्रणयिनो विभवैस्तत: किम्? कल्पस्थितं तनुभृतां तनुभिस्तत: किम्? -(अमृताशीति, पद्य 77, पृष्ठ 155) अर्थ:-शत्रुओं/विद्वेषियों के मस्तक पर अपना पैर रख दिया (अर्थात् उन्हें पददलित कर दिया), तो इससे क्या? सम्पूर्ण लोगों के अभिलषित हितकारी फल को देनेवाली सम्पत्तियों दी गयीं, तो इससे क्या? प्रकृष्टतर वैभवों से इष्टजन भलीभाँति तृप्त कर दिये गये, तो इससे क्या? संसारियों के शरीर कल्पान्त-स्थिति हो गये, तो इससे क्या? ___अर्थात् ये लौकिक साधारण लोगों के लिए भले ही उपलब्धि के रूप में लगें, किन्तु आध्यात्मिक सज्जनों पर इन बातों का कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। वे इन सबको तुच्छ ही जानते हैं। यदि ये कार्य किसी को उपलब्धिरूप प्रतीत हों, तो समझना चाहिए कि वह सामान्य मोही संसारी प्राणी है, आध्यात्मिक उन्नति एवं तत्त्वज्ञान के धरातल पर अभी अपने पदन्यास भी नहीं किया है। उदासीनता 'हांसी में विषाद बसे, विद्या में विवाद बसे, काया में मरन, गुरु वर्तन में हीनता। शुचि में गिलानी बसे, प्रापति में हानि बसे, जैसे हारि सुन्दरदशा में छवि-हीनता।। रोग बसे भोग में, संयोग में वियोग बसे, गुण में गरब बसे, सेवामाँहि हीनता। और जगरीति जेती गर्भित असाता सेती, साता की सहेली है अकेली उदासीनता।।' -(समयसार नाटक 11) . अर्थ:-हास-परिहास में विषाद का निवास है, विद्या में विवाद का भय है, काय में मृत्यु भीति है, गुरुता में लघुता से भय है, पवित्रता में पवित्रता नष्ट न हो कहीं—यह ग्लानि बसी हुई है, प्राप्ति में हानि की आशंका है, जय में पराजय का भय है, सौन्दर्य में उसके क्षीण होने का दुःख बसा है, भोगों में रोग बसे हैं, संयोग में वियोग की अन्तर्ध्वनि है, गुणों में गर्व का निवास है और सेवा में हीनता का बोध होता रहता है। इसप्रकार जितनी संसार की रीतियां हैं, वे असाता (दु:ख) से गर्भित हैं, सुखों की सखी तो एकमात्र उदासीनवृत्ति, वैराग्यचर्या है। - प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर'98 0015

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