________________
चूँकि उस समय के पुरातनपंथियों ने मुल्तानी-समाज की एक तरह से उपेक्षा कर रखी थी, अत: मेरे इस कदम की समाज में तीव्र प्रतिक्रिया हुई तथा उन लोगों ने कहा कि “हम इन्हें पुराने शहर में प्रवेश नहीं करने देंगे एवं इनके पीछी-कमण्डलु छीन लेंगे।" हमारे गुरु महाराज (आचार्य देशभूषण जी) ने भी स्थानीय समाज के अतिविरोध के कारण मेरे ऊपर संघ में आने पर प्रतिबन्ध लगा दिया। तब मैंने सहज शांतभाव से पं० चैनसुखदास जी के निवेदन पर पं० टोडरमल जी वाले मंदिर में चातुर्मास किया। इस सब घटनाक्रम से धर्मानुरागी विद्वान् पं० इन्द्रलाल शास्त्री भी बहुत दुःखी हुये एवं उन्होंने मुझसे कहा कि “महाराज जी ! आप इन बातों की परवाह न करें एवं अपनी धर्मप्रभावना जारी रखें। जनता में आपके प्रवचनों का बहुत प्रभाव हो रहा है।" तब मैंने उनके प्रशंसावचनों को भी समताभाव से सुना और स्वाध्याय में लीन हो गया।
न केवल मेरे साथ, अपितु अन्य धर्मात्मा महापुरुषों के साथ भी ऐसे अनेकों प्रसंग बने हैं; जिनमें उन्होंने असाधारण धैर्य, साम्यभाव एवं गंभीरता का परिचय दिया है। उनमें से दो प्रसंग यहाँ प्रस्तुत करता हूँ-परमपूज्य आचार्य शांतिसागर जी से जब कुछ इतरसमाज के लोगों के जिनमन्दिर प्रवेश का मुद्दा आया तथा आचार्यश्री ने यथानाम मुद्रा में शास्त्रोक्त रीति से समाधान दिया; तो एक सज्जन क्रोध से आगबबूला हो गये और बोले कि “इन्हें तो गोली मार देनी चाहिये।" पूज्य आचार्यश्री ने सदा की भाँति शांतभाव व निश्छल स्मित-हास्यपूर्वक उन्हें भी “सद्धर्मवृद्धि” का मंगल आशीर्वाद दिया। ___ महान् धर्मप्रभावक एवं शिक्षाप्रसारक क्षुल्लक गणेश प्रसाद जी वर्णी जब दिल्ली में आये हुये थे तथा अपनी उदारवादी विचारधारा से उन्होंने कुछ कहा; तो एक परम्परावादी मुंबई निवासी श्री निरजनलाल जैन ने उन्हें पीछी-कमण्डलु छीन लेने की धमकी दी। तो वे अत्यन्त सरल निश्छल मुस्कानपूर्वक शांतभाव से बोले कि “भैया ! मेरे पीछी-कमण्डलु तो तुम भले ही छीन सकते हो, परन्तु मेरे हृदय में अरिहंत परमात्मा व वीतराग जैनधर्म के प्रति अनन्य श्रद्धा है, वह क्या तुम छीन सकते हो? मेरा संबल ये पीछीकमण्डलु नहीं हैं, अपितु वह श्रद्धा है।"
आज के इस विषम वातावरण में तो सज्जनों एवं साधुवृत्ति अपरिग्रही अहिंसकजनों का तो जगत्, अकारण ही बैरी बना हुआ है। कहा भी है “निष्कारणं वैरिणो जगति।" इसे लौकिक दृष्टान्तपूर्वक आचार्य गुणभद्र ने इसप्रकार समझाया है
“भीतमूर्तिर्गतत्राणा निर्दोषा देहवित्तकाः।
दन्तलग्न-तृणा जन्ति मृगीरन्येषु का कथा?" – (आत्मानुशासन, 29) अर्थ:-जिन हिरणियों का शरीर सदा भय से काँपता रहता है, जिनका वन में कोई रक्षक नहीं है, जो किसी के प्रति अपराध (अनिष्ट) भी नहीं करती हैं, जिनके पास एकमात्र अपने शरीर को छोड़कर दूसरा कोई परिग्रह नहीं है तथा जो अपने दाँतों में
0014
प्राकृतविद्या+अक्तूबर-दिसम्बर'98