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नव ग्रैवेयक में वहिर्वेषी के मिथ्यात्वोदय विद्यमान है। 'भरत नृप घर ही में वैरागी' अन्य भी गृहस्थ विद्वानों की अनेक अमर कृतियाँ हैं। तीर्थंकर-जन्म, मुनिदान, मन्दिर चैत्यालय बनवाना, उत्सव प्रतिष्ठा कराना, संघ निकालना, विद्यालय चलाना आदि कार्यों को गृहस्थ ही कर सकता है। पाँचवें से छठे-सातवें गुणस्थान का मात्र सवाया-ड्योढ़ा अन्तर है। सम्यक्त्व से गुणकार लगाना, नीचे तो शून्य है।
-(साभार उद्धृत, 'धर्म-फल सिद्धान्त', पृष्ठ 199-201)
आत्मज्ञान से निर्वाण-प्राप्ति एष सर्वेषु भूतेषु गूढात्मा न प्रकाशते। दृश्यते त्वया बुद्ध्या सूक्ष्मया सूक्ष्मदर्शिमिः ।।
-(कठोपनिषद्, 1, 3, 12) हन्त तेऽहम् प्रवक्ष्यामि गुह्यं सनातनम् । यथा च मरणं प्राप्य आत्मा भवति गौतम।। योनिमन्ये प्रपद्यन्ते शरीरत्वाय देहिनः । सौणुमन्येऽनुसंयन्ति यथाकर्म यथाश्रुतम् ।।
–(कठोपनिषद्, 2, 2, 6-7) अर्थ: अर्थात् प्राणिमात्र में एक अनादि अनन्त सजीव तत्त्व है, जो भौतिक न होने के कारण दिखाई नहीं देता; वही आत्मा है। मरने के पश्चात् यह आत्मा अपने कर्म व ज्ञान की अवस्थानुसार वृक्षों से लेकर संसार की नाना जीव-योनियों में भटकता फिरता है, जब तक कि अपने सर्वोत्कृष्ट चरित्र और ज्ञान द्वारा निर्वाण पद' प्राप्त नहीं कर लेता। 'उपनिषत्' में जो यह उपदेश गौतम को नाम लेकर सुनाया गया है, वह हमें जैनधर्म के अन्तिम तीर्थंकर महावीर के उन उपदेशों का स्मरण कराये बिना नहीं रहता, जो उन्होंने अपने प्रधान शिष्य इन्द्रभूति गौतम' को गौतम नाम से ही संबोधित करके सुनाये थे, और जिन्हें उन्हीं गौतम ने बारह अंगों में निबद्ध किया, जो प्राचीनतम जैन- साहित्य है और 'द्वादशांग आगम' या जैन श्रुतांग' के नाम से प्रचलित पाया जाता है।
-(साभार उद्धृत : डॉ० हीरालाल जैन कृत 'भारतीय संस्कृति में जैनधर्म का योगदान' पृष्ठ 50-51) **
'भिक्षुरेकः सुखी लोके 'वासो बहूनां कलहो, भवेद् वार्ताद्वयोरपि । एक एव चरेत्तस्मात्, कुमार्या इव कंकणम् ।।' ____ अर्थ:-बहुत लोग एक साथ रहते हैं, तो कलह निर्माण होता है और दो रहते हैं, तो वार्तालाप होता है। अत: सन्यासी को एकाकी-एकांत में ही रहना चाहिए; जैसे-कुमारी | कन्या के हाथ का (एक) ही कंकण होता है।
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प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर'98
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