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सामान्यत: कोई कर नहीं सकता है। क्योंकि वे भली-भाँति भारतीय संस्कृति के इस मंत्र को जानते हैं कि 'भले ही जीवन में पैसों से सब कुछ खरीदा जा सकता है, किन्तु माता-पिता का मोल पैसों से नहीं चुकाया जा सकता। सारे जीवन उनकी सेवा करें, तो भी उनसे उऋण नहीं हो सकते हैं।' क्योंकि माता-पिता सारे जीवन जो वात्सल्य एवं कष्ट-सहिष्णुता से शिशु का लालन-पालन कर उसे राष्ट्र का योग्य नागरिक बनाते हैं; उसका प्रतिदान किसी भी भौतिक सामग्री के द्वारा संभव नहीं है। उसके लिए तो समर्पित सेवाभाव से उनकी आज्ञा का पालन किया जाए तथा विनम्र होकर उनकी यावज्जीवन सेवा की जाए - यही एकमात्र उपाय है। इस बात को संभवत: अपने पिता के सुसंस्कारों से समन्वित उनकी संतति भली-भाँति जानती थी, अत: अपने विनम्र एवं समर्पित सेवाभाव से उन्होंने इस तथ्य को साक्षात् करके दिखाया है।
यद्यपि इस समाज को इस शताब्दी में स्वनामधन्य श्रेष्ठिवर्य माणिकचंद जी पानाचंद जी बम्बई, लाला जम्बूप्रसाद जी सहारनपुर वालों, सेठ निर्मल कुमार जैन आरा, राजा लक्ष्मणदास जी मथुरावालों, सर सेठ हुकुमचंद जी इन्दौर वालों आदि का भी प्रभावी नेतृत्व मिला है और उसमें इसने नये क्षितिजों को स्पर्श किया। फिर ‘साहू जैन परिवार' में आदरणीय साहू शांतिप्रसाद जी जैन, साहू श्रेयांस प्रसाद जी जैन का दूरदर्शी नेतृत्व मिला, जिसमें नये आयाम मिले। इन सबके गुणों को अपने में समाहित कर, उसमें अपार सौम्यता, प्रशान्तभाव, सूक्ष्मदर्शिता, अपार वैदुष्य एवं उदारचेतस् भावना का अपूर्व सम्मिश्रण कर एक अनुपम व्यक्तित्व समाज को 'नेता' के रूप में मिला, और वे थे साहू अशोक कुमार जी जैन। . उनके व्यक्तित्व एवं कार्यों की जीवन्तता के परिप्रेक्ष्य में 'थे' का प्रयोग मात्र शरीर के लिए ही लागू होता है, गुणों व यश:काय व्यक्तित्व के लिए नहीं।
आज जब वे सशरीर नेतृत्व के लिए हमारे मध्य नहीं हैं, तो सम्पूर्ण समाज की जिम्मेवारी और अधिक बढ़ जाती है। समाज को एक सर्वमान्य प्रभावी नेतृत्व की अपेक्षा होती है। नीतिवचन हैं
“अनायकं तु नष्टव्यं, नष्टव्यं बहुनायकम् ।
त्रिनायकन्तु नष्टव्यं न नष्ट एकनायकम् ।।" - अर्थात् जिस समुदाय का कोई नायक (नेता) नहीं होता, वह समाज नष्ट हो जाती है। जिसके दो-तीन या बहुत नेता होते हैं, वह भी नष्ट हो जाती है। मात्र एक नेतृत्ववाली समाज की प्रगतिशील एवं सुरक्षित रहती है। ___ संपूर्ण इतिहास इस शाश्वत तथ्य का मुखर साक्षी रहा है। जब कभी भी जिस किसी देश या समाज में अनायकत्व या बहुनायकत्व आया है, वह सुनिश्चितरूप से अवनति को प्राप्त हुआ है। इस तथ्य को आज हम साहू 'अशोक' जी के 'शोकरहित' हो जाने की
प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर'98
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