Book Title: Paumchariyam Part 01
Author(s): Parshvaratnavijay
Publisher: Omkarsuri Aradhana Bhavan

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Page 28
________________ 27 थी। विमलसूरि इसी नागिल शाखा में हुए हैं । नन्दीसूत्र में आचार्य भूतदिन को भी नाइलकुलवंशनंदीकर कहा गया है। यही बिरूद विमलसूरि ने अपने गुरुओं आर्य एवं आर्य विजय को भी दिया है। अत: यह सुनिश्चित है कि विमलसूरि उत्तर भारत की निर्ग्रन्थ परम्परा से सम्बन्धित है और उनका यह 'नाइल कुल' श्वेताम्बरों में बारहवीं शताब्दी तक चलता रहा है। चाहे उन्हें आज के अर्थ में श्वेताम्बर न कहा जाये, किन्तु वे श्वेताम्बरों के अग्रज अवश्य है, इसमें किसी प्रकार के मतभेद की सम्भावना नहीं है । पउमचरियं जैनों के सम्प्रदाय-भेद से पूर्व का हैं - पउमचरियं के सम्प्रदाय का निर्धारण करने हेतु यहाँ दो समस्याएँ विचारणीय हैं - प्रथम तो यह कि यदि पउमचरियं का रचनाकाल वीर नि.सं. ५३० है, जिसे अनेक आधारों पर अयथार्थ भी नहीं कहा जा सकता है, तो वे उत्तरभारत के सम्प्रदाय विभाजन के पूर्व के आचार्य सिद्ध होगे । यदि हम भ. महावीर का निर्वाण ई.पू. ४६७ मानते हैं तो इस ग्रन्थ का रचनाकाल ई. सन् ६४ और वि.सं. १२३ आता है । दूसरे शब्दों में पउमचरियं विक्रम की द्वितीय शताब्दी के पूर्वार्ध की रचना है । किन्तु विचारणीय यह है कि क्या वीर नि.सं. ५३० में नागिलकुल अस्तित्व में आ चुका था ? यदि हम कल्पसूत्र पट्टावली की दृष्टि से विचार करें तो आर्य वज्र के शिष्य आर्य वज्रसेन और उनके शिष्य आर्य नाग महावीर की पाट परम्परा के क्रमशः १३वें, १४वें एवं १५वें स्थान पर आते हैं यदि आचार्यों का सामान्य काल ३० वर्ष मानें तो आर्यवज्रसेन और आर्यनाग का काल वीर नि. के ४२० वर्ष पश्चात् आता है, इस दृष्टि से वीर नि. के ५३० वें वर्ष में नाइलकुल का अस्तित्व सिद्ध हो जाता है । यद्यपि पट्टावलियों में वज्र स्वामी के समय का कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं है किन्तु निह्नवों के सम्बन्ध में जो कथायें है, उसमें आर्यरक्षित को आर्य भद्र और वज्र स्वामी को समकालीन बताया गया है और इस दृष्टि से वज्रस्वामी का समय वीर नि. ५८३ मान लिया गया है, किन्तु यह धारणा भ्रान्तिपूर्ण है । इस संबंध में विशेष उहापोह करके कल्याणविजयजी ने आर्य वज्रसेन की दीक्षा वीर नि. सं. ४८६ में निश्चित की है । यदि इसे हम सही मान ले तो वीर नि.सं. ५३० में नाईल कुल का अस्तित्व मानने में कोई बाधा नहीं आती है। पुनः यदि कोई आचार्य दीर्घजीवी हो तो अपनी शिष्य परम्परा में सामान्यतया वह चार-पाँच पीढियाँ तो देख ही लेता है। वज्रसेन के शिष्य आर्य नाग, जिनके नाम पर नागेन्द्र कुल ही स्थापना हुई, अपने दादा गुरु आर्य वज्र के जीवनकाल में जीवित हो सकते हैं । इसी आधार पर उन्हें आर्य वज्र का सीधा शिष्य मानकर वज्रसेन को उनका गुरुभ्राता मान लिया गया और आर्यरक्षित के काल के आधार पर उनके काल का निर्धारण कर लिया गया । किन्तु नन्दीसूत्र में आचार्यो के क्रम में बीच-बीच में अन्तराल रहे है । अत: आचार्य विमलसूरि का काल वीर निर्वाण सं. ५३० अर्थात् विक्रम की दूसरी शताब्दी का पर्वार्ध मानने में कोई बाधा नहीं आती है। यदि हम पउमचरियं के रचनाकाल वीर नि.सं. ५३० को स्वीकार करते हैं, तो यह स्पष्ट है कि उस काल तक उत्तरभारत के निर्ग्रन्थ संघ में विभिन्न कुल शाखाओं की उपस्थिति और उनमें कुछ मान्यता भेद या वाचनाभेद तो था फिर ४४. नाइलकुल-वंसनांदिकरे.........भूयदिनमायरिए । - नन्दीसूत्र ४४-४५ । ४५. पट्टावली परागसंग्रह (कल्याणविजयजी), पृ. २७ एवं १३८-१३९ Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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