Book Title: Paumchariyam Part 01
Author(s): Parshvaratnavijay
Publisher: Omkarsuri Aradhana Bhavan
View full book text
________________
पउमचरियं अह अट्ठद्धकम्मरहियस्स तस्स झाणोवओगुत्तस्स । सयलजगुज्जोयकरं, केवलनाणं समुप्पन्नं ॥३०॥ रुहिरं खीरसवण्णं, मलसेयविवज्जियं सुरभिगन्धं । देहं सलक्खमगुणं, रविप्पभं चेव अइविलमं ॥३१॥ नयणा फन्दणरहिया, नहकेसाऽवट्ठिया य निद्धा य । जोयणसयं समन्ता, मारीइ विवज्जिओ देसो ॥३२॥ जत्तो ठवेइ चलणे, तत्तो जायन्ति सहसपत्ताई । फलभरनमिया य दुमा, साससमिद्धा मही होइ ॥३३॥ आयरिससमा धरणी, जायइ इह अद्धमागही वाणी । सरए व निम्मलाओ, दसाओ रय-रेणुरहियाओ ॥३४॥ ठायइ जत्थ जिणिन्दो, तत्थ य सीहासणं रयणचित्तं । जोयणघोसमणहरं, दुन्दुहि सुरकुसुमवुट्ठी य ॥३५॥ एवं सो मुणिवसहो, अट्ठमहापाडिहेरपरियरिओ। विहर जिणिन्दभाणू, बोहिन्तो भवियकमलाई ॥३६॥ अइसयविहूइसहिओ, गण-गणहर-सयलसङ्घपरिवारो । विरहन्तो च्चिय पत्तो, विउलगिरिन्दं महावीरो ॥३७। केवलमहिमार्थं देवानामागमनम् - नाऊण देवराया, विउलमहागिरिवरे जिणवरिन्दं । एरावणं वलग्गो, हिमगिरिसिहरस्स संकासं ॥३८॥ सिंदूरड्यकुम्भं, विरड्यनक्खत्तमालकयसोहं । घण्टारवनिग्धोसं, गण्डयलुब्भिन्नमयलेहं ॥३९॥ गुमुगुमुगुमेन्तमहुयर-निलीणमयसुरहिवासियसुयन्धं । चलचवलकण्णचामर-वाऊ व्वन्तधयमालं ॥४०॥ अथाष्टार्धकर्मरहितस्य तस्य ध्यानोपयोगयुक्तस्य । सकलजगोद्योतकरं केवलज्ञानं समुत्पन्नम् ॥३०॥ रुधिरं क्षीरसवर्णं, मलस्वेदविवर्जितं सुरभिगन्धम् । देहं सलक्षणगुणं रविप्रभं चेवातिविमलम् ॥३१॥ नयने स्पन्दनरहिते नखकेशाऽवस्थिताश्चस्निग्धाश्च । योजनशतं समन्ततो मारीति विवर्जितो देशः ॥३२॥ यत्र स्थापयति चरणौ तत्र जायन्ति सहस्रपत्राणि । फलभरनमिताश्चद्रुमाः शस्यसमृद्धा मही भवति ॥३३॥ आदर्शसमा धरतिर्जायतीहार्धमागधि वाणी। शरद इव निर्मला दिशो रजोरेणुरहिताः ॥३४॥ तिष्ठति यत्र जिनेन्द्रस्तत्र च सिंहासनं रत्नचितम् । योजनघोषमनोहरं दुन्दुभिः सुर-कुसुमवृष्टिश्च ॥३५॥ एवं स मुनिवृषभोऽष्टमहाप्रातिहार्यपरिवरितः । विहरति जिनेन्द्रभानु र्बोधयन् भविककमलानि ॥३६॥ अतिशयविभूतिसहितो गण-गणधर-सकलसङ्घपरिवारः । विहंरश्चैव प्राप्तो विपुलगिरीन्द्रं महावीरः ॥३७।। केवलमहिमार्थं देवानामागमनम् - ज्ञात्वा देवराजा, विपुलमहागिरिवरे जिनवरेन्द्रम् । ऐरावणं प्रलग्नो हिमगिरिशिखरस्य सदृशम् ॥३८॥ सिन्दूररचितकुम्भं विरचितनक्षत्रमालाकृतशोभम् । घण्टारव निर्घोषं, गण्डतलोद्भिन्नमदरेखम् ॥३९॥ गुमगुमायमानमधुकरनिलीनमदसुरभ्यधिवासितसुगन्धम् । चलचपलकर्णचामरवायूद्धवद्ध्वजमालम् ॥४०॥
१. संवेगपरो मु० । २. अष्टकर्माहस्य (?) । अत्राचार्यस्य प्रमादः प्रतिभाति, केवलज्ञानोत्पत्तिसमये चतुःकर्मसंभवान्-सं० । अदुद्धकम्म-जे०
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org
Jain Education Intemalional

Page Navigation
1 ... 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226