Book Title: Paumchariyam Part 01
Author(s): Parshvaratnavijay
Publisher: Omkarsuri Aradhana Bhavan

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Page 64
________________ विज्जाहरलोगवण्णणं-३/९१-११६ दट्ठण य मरुदेवी, दिव्वालंकारभूसियं पुत्तं । पुलइ-रोमञ्चइया, न माइ नियएसु अंगेसु ।१०४॥ नाभी वि सुयं दर्दू, सुरकुङ्कमबहलदिन्नर्चच्चिक्कं । वररयणभूसियङ्ग, तइलोक्काईसयं वहइ ॥१०५॥ उयरम्मि जं पविट्ठो, उसभो जणणीए कुन्दससिवण्णो । उसभो त्ति तेण नामं, कयं से नाभीण तुट्टेणं ॥१०६॥ अणुदियहं परिवड्डइ, अङ्गट्ठयअमयलेहणवसेणं । सुरदारयपरिकिण्णो, कीलणयसएसु कीलन्तो ॥१०७॥ पत्तो सरीरविद्धि, कालेणऽप्पेण परमलायण्णो। लक्खण-गुणाण निलओ, सिरिवच्छुक्किण्णवच्छयलो ॥१०८॥ धणुपञ्चसउच्चत्तं, देहं नारायवज्जसंघयणं । लक्खणसहस्ससहियं, रवि व्व तेएण पज्जलियं ॥१०९॥ आहार-पाण-वाहण-सयणा-ऽऽसण-भूसणाइयं विविहं । देवेहि तस्स सव्वं, उवणिज्जइ तक्खणे परमं ॥११०॥ कालसभावेण तओ, नट्टेसु य विविहकप्परुक्खेसु । तइया इक्खुरसो च्चिय, आहारो आसि मणुयाणं ॥१११॥ विन्नाण-सिप्परहिया, धम्मा-ऽधम्मेण वज्जिया पुहई । कल्लाण-पयरणाणं, न य पासण्डाण उप्पत्ती ॥११२॥ तइया धणएण कया नयरी वरकणगतुङ्गपागारा । नवजोयणवित्थिण्णा, बारस दीहा रयणपुण्णा ॥११३॥ उसभजिणेण भगवया, गामा-ऽऽ-गर-नगर-पट्टण-निवेसा। कल्लाण-पयरणाणि य, सयं च सिप्पाण उवइटुं ॥११४॥ रक्खण करणनिउत्ता, जे तेण नरा महन्तदढसत्ता । ते खत्तिया पसिद्धि, गया य पुहइम्मि विक्खाया ॥११५॥ वाणिज्ज-करिसणाई, गोरक्खण-पालणेसु उज्जुत्ता । ते होन्ति वइसनामा, वावारपरायणा धीरा ॥११६॥ दृष्ट्वा च मरुदेवी दिव्यालङ्कारभूषितं पुत्रम् । पुलकितरोमाञ्चिता न माति निजकेष्वङ्गेषु ॥१०४।। नाभिरपि सुतं दृष्ट्वा सुरकुङ्कमबहलदत्तमण्डितम् । वररत्नभूषिताङ्गं त्रैलोक्यातिशयं वहति ॥१०५।। उदरे यत्प्रविष्टो वृषभ जनन्याः कुन्दशशीवर्णः । ऋषभ इति तेन नाम कृतं तस्य नाभिना तुष्टेन ॥१०६।। अनुदिवसं परिवर्धत अंगुष्टामृतलेहनवसेन । सुरदारकपरिकीर्णः क्रीडनकशतैः क्रीडन् ॥१०७॥ प्राप्तः शरीरवृद्धि कालेनाल्पेन परमलावण्यः । लक्षणगुणानां निलयः श्रीवत्सोत्कीर्णवक्षःस्थलः ।।१०८।। पञ्चधनुशतोच्चत्वं देहं वज्रनाराच संहननम् । लक्षणसहस्रसहितं रविरिव तेजसा प्रज्ज्वलितम् ।।१०९॥ आहार-पान-वाहन-शयनाऽऽसन-भषणादिकं विविधम । देवैस्तस्य सर्वमपनीयते तत्क्षणे परमम् ॥११०॥ काल स्वभावेन ततो नष्टेषु च विविधकल्पवृक्षेषु । तदेक्षुरसश्चैवाहार आसीन्मनुष्याणाम् ॥१११॥ विज्ञान-शिल्परहिता, धर्माऽधर्मेण वर्जिता पृथिवी । कल्याण-प्रतरणानां च न च पाखण्डानामुत्पत्तिः ॥११२॥ तदा धनदेन कता नगरी वरकनकतङ्गप्राकारा । नवयोजनविस्तीर्णा द्वादशदीर्घा रत्नपूर्णा ॥११३।। ऋषभजिनेन भगवता गामाऽऽकरनगरपट्टननिवेशाः । कल्याण-प्रतरणानि च स्वयं शिल्पान्युपदिष्टानि ॥११४॥ रक्षणकरणनियुक्ता ये तेन नरा महादृढसत्त्वाः । ते क्षत्रियाः प्रसिद्धिं गताश्च पृथिव्यां विख्याताः ॥११५॥ वाणिज्य-कर्षणादि, गोरक्षण-पालनेषूद्यताः । ते भवन्ति वैश्यनामानो व्यापारपरायणा धीराः ॥११६।। १. (दे.) मण्डितम् । २. कयं तु नाभीण-मु० । ३. नाभिना । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.janeibrary.org

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