Book Title: Paumchariyam Part 01
Author(s): Parshvaratnavijay
Publisher: Omkarsuri Aradhana Bhavan
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रक्खसवंसाहियारो-५/९६-१२०
___५१ नयरे अरिंजयपुरे, जयावईकुच्छिसंभवा जाया। कूरा-ऽमरधणुनामा, भिच्चा उसहस्स रायाणो ॥१०९॥ अह नरवईण समयं पव्वज्जं गेण्हिऊण कालगया। परिनिव्वुओ नरिन्दो, ते सहसारे समुप्पन्ना ॥११०॥ ससि पढमं तत्थ चुओ, जाओ च्चिय मेहवाहणो एसो। आवलिओ वि हुएत्तो, सहस्सनयणो समुप्पन्नो ॥१११॥ सगरचक्रि-सहस्रनयनयोः सम्बन्धः - तो भणइ चक्कवट्टी, सहस्सनयणे विभू ! परिकहेह। पीई मे अहिययरा, केण निमित्तेण उप्पन्ना ? ॥११२॥ अह साहिउँ पवत्तो, तित्थयरो पुव्वजम्मसंबन्धं । भिक्खादाणफलेणं, देवत्तं रम्भको पत्तो ॥११३॥ सोहम्माउ चवित्ता, चन्दपुरे नरवइस्स भज्जाए । वरकित्तिनामधेओ, पव्वज्जं गेण्हिऊण मओ ॥११४॥ देवो होऊण चुओ, अवरविदेहे तओ समुप्पन्नो । चन्दमइ-महाघोसस्स नन्दणो रयणसंचयपुरे ॥११५॥ एत्तो पयावलो सो, पव्वज्जं गेण्हिऊण कालगओ। देवो पाणयकप्पे, होऊण चुओ भरहवासे ॥११६॥ पुहईपुरम्मि जाओ, जसहरपुत्तो जयाए जसकित्ती । निक्खमिय पिउसगासे, विजयविमाणे समुप्पन्नो ॥११७॥ तत्तो चुओ समाणो, जाओ सगरो त्ति चक्कवट्टि तुमं । चोद्दसरयणाहिवई, समत्तभरहाहिवो सूरो ॥११८॥ जेणऽन्तरेण दइओ, आवलिओ रम्भकस्स आसि पुरा । तेणऽन्तरेण तुझं, सहस्सनयणे अहियनेहो ॥११९॥ सोऊण चरियमेयं, निययं पिउसन्तियं हरिसियच्छो । थोऊण समाढत्तो, सब्भूयगुणेहि तित्थयरं ॥१२०॥
नगरे ऽरिजयपूरे जयावती कुक्षिसंभवौ जातौ । कूराऽमरधनुनामानौ भृत्यौ ऋषभस्य राज्ञः ॥१०९।। अथ नरपितना सार्धं प्रव्रज्यां गृहीत्वा कालगतौ । परिनिवृत्तो नरेन्द्रस्तौ सहस्रारे समुत्पन्नौ ॥११०।। शशी प्रथमं ततश्च्युतो जात एव मेघवाहन एषः । आवलिकोऽपि खल्वितः सहस्रनयनः समुत्पन्नः ॥१११।। सगरचक्री-सहस्रनयनयोः सम्बन्धःतदा भणति चक्रवर्ती सहस्रनयने विभु ! परिकथय । प्रीति र्ममाधिकतरा केन निमित्तेनोत्पन्ना ॥११२।। अथ कथयितुं प्रवृत्तस्तीर्थकरः पूर्वभवसम्बन्धम् । भिक्षादानफलेन देवत्त्वं रम्भकः प्राप्तः ॥११३।। सौधर्माच्च्युत्वा चन्द्रपुरे नरपते भर्यायाम् । वरकीर्तिनामधेयः प्रव्रज्यां गृहीत्वा मृतः ॥११४|| देवो भूत्वा च्यूतोऽपरविदेहे ततः समुत्पन्नः । चन्द्रमती-महाधोषयो नन्दनो रत्नसंचयपुरे ॥११५॥ इतः प्रजापालः स प्रव्रज्यां गृहीत्वा कालगतः । देवः प्राणतकल्पे भूत्वा च्युतो भरतवर्षे ॥११६॥ पृथिवीपुरे जातो यशोधरपुत्रो जयायां यशकीर्तिः । निष्क्रम्य पितृसकाशे विजयविमाने समुत्पन्नः ॥११७।। ततश्च्युतः सन् जातः सगर इति चक्रवर्ती त्वम् । चतुर्दशरत्नाधिपतिः समस्तभरताधिपः शूरः ॥११८॥ येनान्तरेण दयित आवलिको रम्भकस्यासीत्पुरा । तेनान्तरेण तव सहस्रनयने अधिकस्नेहः ॥११९॥ श्रुत्वा चरित्रमेतन्निजं पितृसत्कं हर्षिताक्षः । स्तोतुं समारब्धः सद्भूतगुणै स्तीर्थकरम् ।।१२०॥
१. परिकहेह-प्रत्य० । २. णमुप्पन्ना-प्रत्य० । ३. पव्वज्जा-मु० ।
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