Book Title: Paumchariyam Part 01
Author(s): Parshvaratnavijay
Publisher: Omkarsuri Aradhana Bhavan
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१०
पउमचरियं वरभवण-तुङ्गतोरण-धवलट्टालय कलङ्कपरिमुक्कं । फलिहासु संपउत्तं, कविसीसयविरड्याभोयं ॥९॥ बहुभण्डसारगरुयं, जल-थलयसमिद्धरयणभरियघरं । नाणादेससमागय-वणियजणुल्लावसद्दालं ॥१०॥ भवणङ्गणच्चणेसु य, मरगय-माणिक्ककिरणकब्बुरियं ।अगुरुय-तुरुक्क-चन्दष्ट-जणवयपरिभोयसुसुयन्धं ॥११॥ चेइयघरेहि रम्मं, आरामुज्जाण-काणणसमिद्धं । सर-सरसि-वावि-वप्पिण-सएसु अइमणहरालोयं ॥१२॥ चच्चर-चउक्कमणहर-पेच्छणयमहन्तमहुरनिग्घोसं । पण्डियजणसुसमिद्धं, अक्खलियचरित्तबहुसत्थं ॥१३॥ किं जंपिएण बहुणा, तं नयरं गुणसहस्सआवासं । अमरपुरस्स य सोहं, घेत्तूण व होज्ज निम्मवियं ॥१४॥ श्रेणिको राजाएवंविहे य नयरे, वसइ निवो तत्थ सेणिओ नाम । नरवइगुणेहि जुत्तो, वेसवणो चेव पच्चक्खो ॥१५॥ भमरनिभनिद्धकेसो, वियसियवरपउमसरिसमुहसोहो । घण-पीण-कढिणखन्धो, थोरुनय-दीहबाहुजुओ ॥१६॥ वित्थिण्णपिहुलवच्छो, करयलसमगिज्झललियतणुमज्झो।मयरायसरिसकडियड, समहियवरहत्थिहत्थोरू ॥१७॥ कुम्मवरचारुचलणो, सोवण्णियपव्वओ व्व दिप्यन्तो । चन्दो व्व सोमवयणो, सलिलनिही चेव गम्भीरो ॥१८॥ तं नत्थि जं न याणइ, नरिन्दविन्नाण-नाणमाहप्पं । सम्मत्तलद्धबुद्धी, गुरु-देवयपूयणसमत्थो ॥१९॥ विविहकला-ऽऽगमकुसलो विमाणवो तस्स वरनरिन्दस्स।सुचिरंपिभण्णमाणो,गुणाण अन्तंन पाविज्जा ॥२०॥
वरभवनतुङ्गतोरण-धवलाथालयं कलङ्कपरिमक्तम् । परिखाभिः संप्रयुक्तं कपिशीर्षविराजिताभोगम् ॥९॥ बहुभाण्डसारगुरुकं, जलस्थलसमृद्धरत्नभृतगृहम् । नानादेशसमागतवणिग्जनोल्लापशब्दवत् ॥१०॥ भवनांऽगणार्चनेषु च मरकत-माणिक्यकिरणकर्बुरितम् । अगुरु-तुरुक्क-चंदन-जनपदपरिभोगसुसुगन्धम् ॥११॥
चैत्यगृहैरम्यमारामुद्यानकाननसमृद्धम् । सर: सरसिवापिक्षेत्रशतैरतिमनोहरालोकम् ॥१२॥ चर्चर-चतुष्कमनोहर-प्रेक्षणक महसो मधुरनिर्घोषम् । पण्डितजनसुसमृद्धमस्खलितचरित्रं बहुशास्त्रम् ॥१३॥ किं ज्लपितेन बहुना तन्नगरं गुणसहस्रावासम् । अमरपुरस्य च शोभां गृहीत्वेव भवेत् निर्मापितम् ॥१४॥ श्रेणिको राजाएवंविधे च नगरे वसति राजा तत्र श्रेणिको नाम । नरपतिगुणैर्युक्तो वैश्रवण इव प्रत्यक्षः ॥१५॥ भ्रमरनिभस्निग्धकेशो विकसितवरपद्मसदृशमुखशोभः । घनपीनकठिनस्कन्धः स्थूलोन्नतदीर्घबाहुयुग्मः ॥१६॥ विस्तीर्णपृथुवक्षः स्थलः करतलसमग्राह्यललिततनुर्मध्यः । मृगराजसदृशकटितटः समधिकवरहस्तिहस्तोरुः ॥१७॥ कुर्मवरचारुचरणः सौवर्णिकपर्वत इव दीप्यमानः । चन्द्र इव सौम्यवदनः सलिलनिधिरिव गम्भीरः ॥१८॥ तन्नास्ति यन्न जानाति नरेन्द्रविज्ञान-ज्ञान माहत्म्यम् । सम्यक्त्वलब्धबुद्धिगुरु-देव-पूजनसमर्थः ॥१९॥ विविधकलाऽऽगम कुशलोऽपि मानवस्तस्य वरनरेन्द्रस्य । सुचिरमपि भण्यमानो गुणानामन्तं न पार्येत् ॥२०॥
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