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भी स्पष्ट संघभेद नहीं हुआ था । दोनों परम्पराएँ इस संघभेद को वीर निर्वाण सं. ६०६ या ६०९ में मानती है । अतः स्पष्ट है कि अपने काल की दृष्टि से भी विमलसूरि संघभेद के पूर्व के आचार्य है और इसलिए उन्हें किसी संप्रदाय विशेष से जोडना संभव नहीं है।
पउमचरियं में स्त्रीमुक्ति आदि की जो अवधारणा है वह भी यही सिद्ध करती है कि वे इन दोनों परम्पराओं के पूर्वज हैं, क्योंकि दोनों ही परम्परायें स्त्रीमुक्ति को स्वीकार करती है । पुनः यह भी सत्य है कि सभी श्वेताम्बर आचार्य उन्हें अपनी परम्परा का मानते रहे हैं । जबकि यापनीय रविषेण और स्वयंभू ने उनके ग्रन्थों का अनुसरण करते हुए भी उनके नाम का स्मरण तक नहीं किया है, इससे यही सिद्ध होता है कि वे उन्हें अपने से भिन्न परम्परा का मानते थे। किन्तु यह स्मरण रखना होगा कि वे उसी युग में हए हैं जब श्वेताम्बर, यापनीय और दिगम्बर का स्पष्ट भेद सामने नहीं आया था । यद्यपि कुछ विद्वान उनके ग्रन्थ में मुनि के लिए 'सियंबर' शब्द के एकाधिक प्रयोग देखकर उनकी श्वेताम्बर परम्परा से सम्बद्ध करना चाहेंगे, किन्तु इस संबंध में कुछ सावधानियाँ की अपेक्षा है । विमलसूरि के इन दो-चार प्रयोगों को छोडकर हमें प्राचीन स्तर के साहित्य में कहीं भी श्वेताम्बर या दिगम्बर शब्दों का प्रयोग नहीं मिलता है । स्वयं विमलसूरि द्वारा पउमचरियं में एक भी स्थल पर दिगम्बर शब्द का प्रयोग नहीं किया गया है। विद्वानों ने भी विमलसूरि के पउमचरियं में उपलब्ध श्वेताम्बर (सियंबर) शब्द के प्रयोग को संप्रदाय सचन न मानकर उस यग के सवस्त्र मनि का सचक माना है। क्योंकि सीता साध्वी के लिये भी सियंबर शब्द का प्रयोग उन्होनें स्वयं किया होगा । मथुरा के ईसा की प्रथम-द्वितीय शती के अंकन भी इसकी पुष्टि करते हैं। जिस प्रकार सवस्त्र साध्वी सीता को विमलसूरि ने सियंबरा कहा उसी प्रकार सवस्त्र मुनि को भी सियंबर कहा होगा । उनका यह प्रयोग निर्ग्रन्थ मुनियों द्वारा वस्त्र रखने की प्रवृत्ति का सूचक है, न कि श्वेताम्बर दिगम्बर संघभेद का । विमलसूरि निश्चित ही श्वेताम्बर और यापनीय-दोनो के पूर्वज है । श्वेताम्बर उन्हें अपने संप्रदाय का केवल इसीलिये मानते हैं कि वे उनकी पूर्व परम्परा से जुड़े हुए है ।
श्रीमती कुसुम पटोरिया ने महावीर जयन्ती स्मारिका जयपुर वर्ष १९७७ ई. पृष्ठ २५७ पर इस तथ्य को स्पष्ट रूप से स्वीकार किया है कि विमलसूरि और पउमचरियं यापनीय नहीं है । वे लिखती हैं कि 'निश्चित विमलसूरि एक श्वेताम्बराचार्य है। उनका नाइलवंश, स्वयंभू द्वारा उनका स्मरण न किया जाना तथा उनके (ग्रन्थ में) श्वेतांबर साधु का आदरपूर्वक उल्लेख-उनके यापनीय न होने के प्रत्यक्ष प्रमाण है।
विमलसूरि और उनके ग्रन्थ पउमचरियं को यापनीय मानने में सबसे बड़ी बाधा यह भी है कि उनकी कृति महाराष्ट्री प्राकृत को अपने ग्रन्थ की भाषा नहीं बनाया है । यापनीयों ने सदैव ही अर्धमागधी से प्रभावित शौरसेनी प्राकृत को ही अपनी भाषा माना है।
अतः आदरणीय पं. नाथुरामजी प्रेमी ने उनके यापनीय होने के संबंध में जो संभावना प्रकट की है, वह समुचित प्रतीत नहीं होती है । यह ठीक है कि उनकी मान्यताओं की श्वेताम्बरों एवं यापनीयों दोनों से समानता है, किन्तु इसका कारण उनका इन दोनों परम्पराओं का पूर्वज होना है - श्वेताम्बर या यापनीय होना नहीं ।
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