Book Title: Nahta Bandhu Abhinandan Granth
Author(s): Dashrath Sharma
Publisher: Agarchand Nahta Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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श्री उदयचन्दजीने भरी जवानी में जाकर २२ वर्षकी मुसाफिरो अखण्ड ब्रह्मचर्य पालनपूर्वक सबके साथ मित्रताके साथ की। उस जमाने में आसामवाले मारवाड़ियोंके सात्त्विक भोजन, शील और कर्मठतासे प्रभावित होकर श्रद्धाकी दृष्टिसे देखते थे एवं 'देवता' कहकर पुकारते थे ।
श्री उदयचन्दजीको वहाँ कतिपय अपूर्व वस्तुएँ भी प्राप्त हुई थीं, लेकिन वे पचास, पचपन वर्ष पूर्व हई चोरीमें चली गई। इन प्राचीन दुर्लभ वस्तुओंमें आसामके "गारुखोर" अब भी विद्यमान हैं । लोगोंका विश्वास है कि ये पूज्य गारुखारे शनैः शनैः बढ़ते है और अपने रक्षकस्वामीका कुशलक्षेम बढ़ाते हैं।
ग्राम डाँडूसरमें स्थित कल्याणमयी माता एवं इतर पारिवारियोंको गवालवाड़ेकी अभ्युदयकारक सुन्दर व्यापार-व्यवस्थाका तनिक भी समाचार नहीं था। लगभग पाँच वर्ष पश्चात् किसीका साथ होनेपर उदयचन्दजी नाहटाने कुछ द्रव्य और क्षेम-कुशलका समाचार घर भेजा। देशमें इधर दानमलजीके जन्मकी थाली बजी और उसी समय श्री उदयचन्दजीके कुशल समाचार मिले अतः दो बधाइयाँ एक साथ हुईं।
___ उदयचन्दजीके अनुज श्री राजरूपजीका विवाह लूणकरणसरके नारायणदासजी छाजेड़के यहाँ हो गया था और उन्हें पुत्ररत्न भी प्राप्त हो चुके थे, लेकिन इन उत्सवों में भी उदयचन्दजी अनुपस्थित थे। कतिपय वर्षोंके उपरान्त श्री राजरूपजी गवालपाड़ा गये और वहाँ अग्रज उदयचन्दजीके साथ कुछ वर्ष रहकर उनके साथ स्वदेश लौटे।
इस प्रकार श्री उदयचन्दजीने २२ वर्षकी सुदीर्घ परदेश-यात्रा पूरी की। अवधिकी दृष्टिसे यह यात्रा नाहटा वंशमें कीत्तिमान (Record) समझी जाती है । कहनेकी आवश्यकता नहीं है कि इस सुदीर्घ यात्राने उदयचन्दजीके वंशको उतना ही सुमधुर और सुदीर्घ फल दिया है जिसे सात पीढी बाद वाले भी भोगते नहीं अघाते। इसे कहते है-शुभ घड़ी और शुभवेलामें शुभ हाथों द्वारा वपित बीज, कमनीय कल्पवृक्ष बन जाता है और अक्षय्य निधिका आगार बनकर चारों ओर आनन्दकी वर्षा करता है।
गवालपाडेमें छापर निवासी हकूमचन्दजी नाहटाके विशेष प्रेमसे श्री उदयचन्दजीका वैवाहिक सम्बन्ध छापरमें हआ और वहाँ निवास करने के हेतु जमीन खरीद ली गई थी। पर छोटे भाइयों व माताजीके कारण उन्हें डाँडूसरमें आकर निवास करना पड़ा।
गवालपाड़ेमें महासिंह मेघराज फर्म थोड़े अरसे पूर्व ही स्थापित हुआ था आपके साथ उदयचन्दजीकी बड़ी सौहार्दता थी। एक ही धर्मके अनुयायी होनेसे परस्पर खूब सहयोग रहता और आपकी विद्यमानतामें सं० १९०५ में वहाँ गौड़ी पार्श्वनाथ जिनालयकी स्थापना हुई। उन दिनों वहाँ यतियोंके चातुर्मास होते थे और धार्मिक संस्कार, व्याख्यान, पठनपाठन और पर्वाराधन चारुतया सम्पन्न होते थे ।
जब उदयचन्दजी गवालपाड़ामें रहते थे, तब छापर-निवासी नाहटा हुकमचन्दजी भी वहाँ जा पहुँचे थे और उन्हीं के पास काम-काज सीखकर अपना स्वतंत्र व्यापार करने लगे थे। श्री उदयचंदजी और श्री हुकमचन्दजीमें परस्पर इतना प्रगाढ़ प्रेम था कि लोग इन्हें 'सहोदर बंधु' समझते थे। आज भी गवालपाड़ेके लोग "बाबाजी और काकाजी वालोंकी गद्दी" शब्दका वाग्-व्यवहार करते हैं और उसी प्राचीन स्नेहाधिक्यका स्मरण दिलाते हैं। श्री हुकमचन्दजीके स्नेहाग्रहके कारण छापरमें निवासके लिए उदयचन्दजी द्वारा भूमि भी खरीदी गई लेकिन पारिवारिकोंके अनुमोदनके अभावमें वह विचार सदाके लिए त्याग दिया गया।
बीकानेरके गुलगुलिया परिवारके पूर्वज उदयचन्दजीके समयमें ही गवालपाड़ा जाकर आपके ‘फर्म में मुनीम नियुक्त हो गये थे। इस परिवारने लगभग ८०-८५ वर्ष तक 'फर्म को सेवा दी और अब भी कर रहे
जीवन परिचय : ११
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