Book Title: Maharaj Chatrasal
Author(s): Sampurnanand
Publisher: Granth Prakashak Samiti

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Page 25
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra १४ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir महाराज छत्रसाल । सम्राट्की इस नीति से उसका कार्य बहुत कुछ सिद्ध हो गया । यद्यपि देश पूर्णरूपेण स्वतंत्र न था फिर भी पाहवीसी परतंत्रता न थी । मुग़लोंको बुन्देलखण्ड में इतना दिक होना पड़ा था कि अब वे हठात् वहाँके घरेलू प्रबन्धमें हस्तक्षेप नहीं करना चाहते थे। पहाड़सिंह भी देवीसिंह की भाँति नराधम न थे । देवीसिंहके निकाले जानेसे बुंदेलोकी कोर्ति भी देशमें फैल गयी थी । इन सब कारणोंसे बहुतसे बुंदेले सरदार अब सन्तुष्ट थे और लड़ाई के बन्द होने से देशके मृतप्राय व्यापारादिको भी सुधरनेका अवसर मिल सकता था । परन्तु ये विचार सच्चे देशभक्तोंको कदापि प्रिय नहीं हो सकते । सुशासन और सुप्रबन्ध बड़े ही उपादेय पदार्थ हैं। वह देश धन्य है जहाँकी प्रजा सुशासकोंके अधिकारमें है और शान्त और निरापद परिस्थितिका अनुभव करती हुई उन्नति के मार्गपर चल रही है । परन्तु मुग़लोंके अधीन रहते हुए चिरस्थायी और वास्तविक उन्नतिकी आशा रखना हिन्दुओंके लिये स्वप्नमात्र था । अपने परिश्रमसे उपार्जित किया हुआ अल्प धन भी भिक्षासे अर्जित अमोघ धनसे अधिक श्रेयस्कर है । बुन्देलखण्ड की इस समयकी निरापदवस्था इसी भिक्षाजिंत श्रीके समान थी। पहाड़सिंहके सहायक और संरक्षक मुग़ल सम्राट् शाहजहाँ थे और बुन्देलखण्ड सर्वथा मुग़ल साम्राज्य के अन्तर्गत था । आसपास कई स्थानोंमें मुग़ल सेनाएँ पड़ी थीं और निकट हो मुग़ल सूबेदार शासन, और बुन्देलखण्डका निरीक्षण कर रहे थे । यह अवस्था राव चम्पत ऐसे पुरुषको कदापि प्रिय नहीं हो सकती थी । इसलिये उन वीर पुरुषोंके साथ, जो उनले For Private And Personal

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