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महाराज छत्रसाल।
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इस अनिश्चय-पूर्ण जीवन में यदि कोई बात निश्चित भी तो सुख और विषयपरताका अभाव । ऐसाजीवन छत्रसाल के लिये अत्यन्त लाभदायक हुअा। जिस प्रकार मुग़ल सम्राट अकबरने जंगल में जन्म पाया था और अपने लड़कपन का बहुतसा भाग लड़ाइयोंके बीच में ही बिताया था उसी प्रकारका अवसर छत्रसालको मिला। जन्म में वैसी ही दशामें हुश्रा और पिताके साथ रहकर जीवनभर वैसी ही अवस्था निर्वाह होने लगा।
पद पदपर आपत्तियों का सामना था। स्वाना कहीं, तो हाथ धोना कहीं और, श्राज भोजन मिला नो कलका ठिकाना नहीं, दिनरात रक्तप्रवाह और शस्त्र-व्यापारका दृश्य आँखो. के सामने श्राता था। घोड़ोंकी पीठ ही कई दिनतक लगातार सुसज्जित कमरोंमें कोमल गद्दों और कोमल गुदगुदे पय्यकोका काम करती थी।
इससे बचपनसे ही बालकने विषय पराङ्मुखता सीखी। विषयोका संसर्ग ही नहीं था, विषयपरता आती कहाँसे ? अपनी इच्छाओंको रोकना, इन्द्रियों का निरोध करना, शीतोष्ण, क्षधातृष्णा आदि द्वन्द्वोको चुपचाप सह लेना, उसका पहिला पाठ हुआ। जबकि छोटे छोटे बच्चे प्रत्युत् युवा पुरुष भी ठण्डी हवासे घबराते हैं और काँटके चुभ जानेसे क्षुब्ध हो जाते हैं, यह बालक प्रखर धूप और मेघाच्छन्न रात्रि में जङ्गलों में फिरताथा । शस्त्रोंकी भनकार ही इसके लिये मधुर मातृगीतकी लोरी थी। लक्ष्मीके स्थान में भगवती रणचण्डी ही इसकी धात्री थीं। इन बातोंने स्वभा. वतः इस के अवयवोंको पुष्ट और हृदयको निर्भय बना दिया। यह समय उस व्यापार के लिये जो इस बालकको आगे चलकर
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