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महाराज छत्रसाल ।
इस समय दुर्दैवने उसे औरङ्गज़ेब की दुर्नीतिके चङ्गलमें डाल दिया था। सिवाय इनके और उस समय उसका कोई सहारा न था । यह सोचकर महाराजने उसी समय बलदिवानको लिखकर दलेल खाँकी जागीर लौटा दी और जो कुछ माल व रुपया उसका लूट में श्राया था सब फेर दिया। इतना ही नहीं, प्रत्युत् जो कुछ क्षति उसकी हो चुकी थी उसके लिये अपने पाससे धन देकर पूर्ति की ।
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इस उदारताका बड़ा अच्छा प्रभाव पड़ा । श्ररङ्गज़ेब की दुर्नीति विफल गयी ओर उसे दलेल ख़ाँको दीर्घ कालतक आपन देखनेका दुरवसर न मिल सका । इतना ही नहीं, उसे अपने अमीरों और अन्य पुरुषोंके सामने लज्जित होना साथ ही इसके लोगोंके चित्तमें छत्रसालकी प्रतिष्ठा और उनकी श्रेष्ठता और भी हढ़ होकर बैठ गयी । यह सच्चा सात्विक दान था, जैसा कि भगवान्ने कहा हैदातव्यमिति यद्दानं दीयतेऽनुपकारिणे ।
पड़ा ।
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देशे काले च पात्रेच, तद्दानं सात्विकं स्मृतम् ॥ और जो सच्चे निष्काम कम्मौका ईश्वरदत्त फल होता है, वह आगे चलकर इनको मिला ।
१५. अस्मद खाँ ।
इसके कुछ काल पीछे मोघामटौंधा ( मटेबन्द ?) आदि परगनों के ज़मीदारोंने, जिनमें हिन्दू व मुसल्मान दोनों थे, लड़नेके लिये तत्पर हुए। इनको इस बात की आशा दिलायी गयी थी कि समयपर मुसल्मानी सेना सहायता करेगी । सेना तो पहुँची नहीं पर ये मूर्ख प्राणोंपर खेल गये। थोड़ी
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