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सौजन्य और गुणग्राहकता।
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की आशा रखना व्यर्थ था। सुना गया है कि उसने गङ्ग कविको हाथीसे कुचलवा कर मरवा डाला था ! इसलिये हिन्दीके कवि उन्हीं दो चार स्वाधीन राजाओंके यहाँ जीविकाके लिये जाते थे जो धनाढ्य थे और काव्य-रसिक थे।
उस समयके कवियोंमें महाकवि भूषण सर्वाग्रगण्य थे। हिन्दीमें वीररसका कवि ऐसा कोई नहीं हुआ है। ये महाराज शिवाजीके यहाँ रहते थे और वहाँ इनको लाखों रुपया मिला । शिवराजभूषण और शिवाबावनी उन्हींकी प्रशंसामें लिखी गयी है। इनको मुसल्मानमात्रसे और विशेषतः औरङ्गजेबसे अत्यन्त चिढ़ थी । इनके काव्यों में जातीयता कूट कूट कर भरी है । दक्षिणसे चलकर ये कुछ कालतक छत्र. सालके यहाँ भी रहे थे । छत्रसालने जो मुग़लोसे लड़ाई की थी उसके कारण भूषणजो उनपर अत्यन्त प्रसन्न थे।
जिस समय वे छत्रसालके यहाँ आये तो महाराजने सोचा कि मैं इनको कौनसीवस्तु, जिससे मेरी कीर्ति अचल हो; धनादि तो शिवाजीने इनको इतना दे रक्खा है कि उससे अधिक देना असम्भव है और फिर उसमें कोई नवीनता न होगी। यही सोचकर जब भूषण की सवारी निकली तो इन्होंने एक कहारको हटाकर पालकीमें आप कन्धा लगा दिया ! यह प्रतिष्ठाको सीमा हो गयो । भूषणजी गद्गद हो गये ओर पालकीसे उतर कर उन्होंने यह कवित्त पढ़ा--
राजत अखण्ड तेज छाजत सुजस बड़ो, गाजत गयन्द दिग्गजन हिय सालको । जाहिके प्रतापसों मलीन आफताप होत, ताप तजि दुजन करत बहु ख्यालको ॥ साज सजि गज तुरी पैदरि कतार दीन्हे,
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