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महाराज छत्रसाल ।
उसको अपनी वर्त्तमान स्थितिसे असन्तोष होने लगता है । वह अपनी अवस्थाका परिवर्तन चाहती है। इसी भावको अँगरेज़ी में 'Divine discontent दैवी अशान्ति' कहते हैं। राष्ट्र की सारी भावी उन्नति इसीपर निर्भर है । ज्यों ज्यों देशके अच्छे दिन निकट आते जाते हैं, उसकी अतुष्टि दृढ़ होती जाती है। परिवर्तनकी इच्छा तीव्र होती जाती है । उसके मार्ग में चाहे कितनी ही रुकावटें हो, वह अविकल गति से बढ़ती जाती है और अपनेको कार्य्यरूपमें परिणत करनेका प्रयत्न करती है । जब उचित समय आता है तो आपसे एक नेता उपस्थित हो जाता है और सब फैली हुई शक्तियोंको एकत्र करके सिद्धिके शिखर पर आरोहण करता है । वह साधारण मनुष्य नहीं होता, प्रत्युत् समुदायकी शक्ति, दृढ़ प्रतिज्ञा और भावी उन्नतिका अवतार होता है। इस दृष्टिले छत्रसाल भी बुन्देलखण्डकी मूर्तिमती जातीयता थे ।
इनके कामका फल बहुत दूरतक पहुँचा । बुन्देलखण्डकी स्वाधीनता प्राप्तिने भारतके स्वतंत्र प्रान्तों की संख्या बढ़ायी । मुगलोंको, प्रत्युत् मुसलमानमात्रको, जो अभिमान हो रहा था, वह जाता रहा। इनकी कीर्तिके साथ साथ चारों ओर हिन्दुओंका यश फैलगया और उनको फिर अपने पौरुषपर विश्वास आया। मुगलोंकी शक्तिके एक अंशके इस ओर लगजानेसे मरहठोको भी बहुत कुछ सहायता मिली । अतः यह कहना अत्युक्ति न होगा कि महाराज छत्रसाल उन दिव्य पुरुषोंमेंसे थे जिनका नाम भारत के इतिहास में चिरजीवी रहेगा।
जिन लोगोंने छत्रसालकी जीवनीको ध्यानपूर्वक पढ़ा
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