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महाराज छत्रसाल ।
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मुग़लोंके साथ छत्रसालकी यह अन्तिम लड़ाई हुई। इसके पीछे औरंगजेबने इनके विरुद्ध कोई सेनान भेजी। सेना भेजना उसके लिये असम्भवसा हो गया था । मुगल साम्राज्यकी सारी परिस्थिति बिगड़ रही थी। पञ्जाबमें सत्यनामी साधुओका विद्रोह बलात् दबा दिया गया था परन्तु इनकी जगह सिक्खोंने स्थान स्थानमें सिर उठाना प्रारम्भ किया। यद्यपि उनमें अभी इतनी सामर्थ्य न थी कि राजसेनाका खुलकर सामना कर सकते पर शासनका काम उनके कारण कठिन हो गया था। राजपूताना प्रायः सारा स्वतंत्र हो गया था। देवतुल्य महाराणा प्रतापके प्रपौत्र महाराण राजसिंहके नेतृत्व में राजस्थानके सभी राज्य दिल्लीसे अलग स्वाधीन हो गये थे। केवल जयपुराधीशने अपना सम्बन्ध अभी खुलकर नहीं तोड़ा था । परन्तु उन्होंने भी किसी प्रकारकी सहायता देना छोड़ दिया था। स्वयं सम्राटके पुत्र असन्तुष्ट थे और
औरंगजेबको भी उनका विश्वास न था। उसने अपनी जवानी. में अपने पिताको गद्दीसे उतारकर कैद कर दिया था-उसे डर था कि कहीं मेरे लड़के मेरे साथ भी ऐसा ही न करें ! जब उसकी रुग्णावस्थामें शाहज़ादा आज़मने उसे देखनेके लिये अहमदनगर पानेकी आज्ञा माँगी तो इस प्रस्तावको अस्वी. कार करते हुए औरंगजेबने कहा था, "यही बहाना मैंने अपने पितासे किया था ।" सबसे बढ़कर आपत्ति मरहठोंने मचा रक्खी थी। यद्यपि महाराज शिवाजीका स्वर्गवास हो चुका था और महाराज संभाजी भी परलोकगामी हो चुके थे, तौभी मरहठे रत्तीभर भी हताश न हुए । उनका उत्साह बढ़ता ही जाता था। औरंगजेब ऐसे बुद्धिमान व्यक्तिको यह समझने में देर न लगी कि अन्तमें मुगल राज्यकी
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