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पेशवासे भेंट |
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का नाम दलेल खाँ था । मौधा के पास लड़ाई हुई और बुँदे - लोकी फिर जीत हुई। तीसरी बार नव्वाबने फिर एक बड़ी सेनाके साथ आक्रमण किया और कई लड़ाइयोंके पश्चात् जगतराजका पूर्ण पराजय हुआ । उसकी सेना चारों ओर फैल गयी और जैतपुराका एक बड़ा अंश उसके अधिकारमें चला गया ।
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महाराज छत्रसाल इस समय ८३ वर्षके थे। उनके लिये यह बड़े दुःखका समाचार था । स्वयं उनमें अब लड़ने की सामर्थ्य न थी और बुंदेलांमें कोई वीर पुरुष इस कामके करनेयोग्य देख न पड़ता था। उन्होंने फिर महाराष्ट्र की ओर, जहाँसे उनको पहिले भी सहायता मिली थी, दृष्टि डाली । इस समय वहाँ छत्रपति शिवाजीके पौत्र महाराजा शाहूजीका शासनकाल था । वे नाममात्र के राजा थे। देशका सारा प्रबंध उनके योग्य सचिव बाजीराव पेशवाके हाथमें था । छत्रसालने उनके पास सहायतार्थ दूत भेजा और यह दोहा लिख भेजा
जो गति गाह गजेन्द्रकी, सो गति भइ है आज । बाजी जात बुँदेलकी, राखो बाजी लाज ॥
पत्र पाते ही पेशवा बुन्देलखण्ड की ओर चल पड़े। सत्रह दिन में पूनासे जैतपुर पहुँचे | बुन्देलखण्ड के सरदार भी अपनी अपनी सेनाओंको लेकर इनके साथ आ मिले। जैतपुराके पास दोनों सेनाओं में लड़ाई हुई। नव्वाबकी हार हुई। तब वह जाकर जैतपुराके किलेमें घुस बैठा । मराठों और बँदेलोंकी संयुक्त सेनाने किलेको घेर लिया। कुछ दिनोंमें किले के भीतर की लड़ाई और खानेकी सामग्री चूक गयी जब बंगशको झख मारकर हार माननी पड़ी । जैतपुराका राज्य
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